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अनुसन्धान-६६
- तेओनी जेम, अमारो क्यारेय एवो दावो नथी के अमारुं चिन्तन साचुं ज छे - अकाट्य छे. अमारो तो, अमारा अतिमन्द क्षयोपशमने आधारे पण, प्रभुशासननी दुर्गम पण श्रेष्ठतम वातोने समजवानो प्रयासमात्र छे. तेम करवा जतां जो अन्यनी वात बराबर न लागे तो ते अंगे टिप्पणी न ज करी शकाय, एवो कोई नियम तो छ नहि. अने छतां, अमारां ते चिन्तनोमां जे कांई पण खामी बताडवामां आवे तेनो स्वीकार करवानी सज्जता छ ज - होवी ज जोईए. अमे "हाथी चले बजार...." एवं कहेवा जेवी निम्न के अकृतज्ञ भूमिकामां नथी ज. हजी पण अमारी नम्रपणे प्रार्थना छे के जे जे मुद्दा विषे लखवामां आव्युं छे, आवे, ते लखाणमांना प्रतिपादन के प्रतिविधान- निरसन अवश्य करो. पहेलां पण कहेलुं, फरी पण कहीशुं के "वादे वादें जायते तत्त्वबोधः". परन्तु छाशियां करवाथी अने तेने 'चोयणा-पडिचोयणा'नां रूपाळां नाम आपी देवामात्रथी कांई व्यग्र मनःस्थितिने छूपावी नथी शकाती.
रही वात उपाध्याय भुवनचन्द्र म.नी मध्यस्थतानी. पहेली वात तो ए के आ कोई विवाद के क्लेश तो नहोतो. के जेमां निवेडो लाववा माटे 'मध्यस्थ' ने लाववाना थाय. आ तो अमारा एक लेखना जवाबरूपे 'बत्रीशी'ना एक पुस्तकमां तेना लेखकमहोदये जरा विचित्र लागे तेवी टीका करी हती, तेथी अमारा प्रतिपादन परत्वे अमारा मनमां वहेम जाग्यो के आमां कांई क्षति हशे ? शास्त्रविरुद्ध प्रतिपादन तो नहि थई गयं होय ? आथी अमारां प्रतिपादनोनी खराई नक्की करवा अमे ते बन्ने तरफनां प्रतिपादनो भुवनचन्द्रजी म.ने तथा एक अन्य गच्छनां विदुषी शास्त्राभ्यासी साध्वी म.ने मोकल्या. ते बन्नेए अमारां प्रतिपादनो परत्वे समर्थनात्मक सूचना मोकली, जे अमारा माटे आश्वासक बनी रही. बाकी, ते लेखकश्रीने ऊतारी पाडवानो के खोटा दर्शाववानो उ. भुवनचन्द्रजीनो आशय त्यारे पण नहोतो, आजे पण नथी. तेओ स्पष्ट छे के ज्ञानना क्षेत्रमा आवा मत-मतान्तर थतां ज होय छे, अने थवां ज जोईए: तो ज कशंक तत्त्व सांपडे. अमारा कारणे ते उपाध्यायश्रीने अजुगता - पत्र-आक्षेपो वेठवाना आव्या ते माटे अमे तेमना प्रत्ये दिलगीरी दर्शावीए छीए.
पुनःमुद्रित आगमादि ग्रन्थोमां पूर्व सम्पादकनुं नाम न लखवा अंगे करवामां आवेल टिप्पणी विषे टकोर छे ते अंगे पण स्पष्टता करवी जोइए.