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फेब्रुआरी - २०१५
शुं महत्त्वपूर्ण ? आपणुं मन्तव्य के शास्त्रनुं ऐदम्पर्य ? : एक चर्चा
- विजयशीलचन्द्रसूरि
ताजेतरमा प्रकाशित एक पुस्तक "बत्रीशीना सथवारे-कल्याणनी पगथारे-७" जोवामां आव्यु. घणा भागे तो तेना लेखक महोदयनी सूचनाथी ज, कोई व्यक्ति आवीने आपी गई. तेमां छेवाडानां पृष्ठोमां "एक पत्र'' छापेल छे, ते जोवा मळ्यो. प्रायः ते वंचाववाना हेतुसर ज पुस्तक आ रीते मोकल्युं हशे.
पत्र अन्य व्यक्ति उपर, ते पण घणा महिना अगाऊ, लखायेलो छ, तेथी तेना मुद्दा परत्वे जवाब आपवानु के चर्चा करवानुं अमारा माटे अनावश्यक छे. अमने एक ज वात खटके छे, अने ते ए छे के -
- जैन शासनना कोई सिद्धान्त के सैद्धान्तिक मुद्दा पर, कोई एकअमुक व्यक्ति ज चिन्तन करी शके, ते ज लखी के प्रतिपादन करी शके; अने तेमना मत के प्रतिपादनथी जुदी वात, कोई, तेमने पूछ्या के जणाव्या सिवाय, करी न शके, करे तो ते जाणे के गुनेगार गणाय !; आ पद्धति तो केवी रीते मान्य गणी शकाय ? .. - एवं चोक्कस बने के तेओनुं प्रतिपादन साचुं होय, अने प्रतिविधान के जु, चिन्तन करनारनी वात खोटी दिशानी होय; पण तो, सुज्ञपुरुष होय तो, ते व्यक्तिना विधानमां के चिन्तनमां क्यां । कई सैद्धान्तिक खामी छे ते दर्शावे; पण आडाटेडा अप्रस्तुत मुद्दाने प्रधान विषय न बनावी मूके.
- आगमोना पायाना सिद्धान्तो परत्वे, ते सिद्धान्तोने अन्यथा करी मूके तेवू चिन्तन/विधान करवानी पोताने छूट, एकाधिकार; अने ते बीजा (पोताना होय तेटला ज नहि) कोईने दर्शाव्या वगर छापी पण शकाय - तेमां क्यांय सभ्य के शिष्ट परम्परा आडे न आवे; पण अन्य कोई जो ते वातने अन्यथा ठराववानो प्रयास करे, तो तेनाथी तेम न कराय; बताव्या विना न ज छपाय, आ केवी पद्धति ? केवी मान्यता ?