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अनुसन्धान-६६
टुंकनोंध :
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
१. 'मस्करिन्' पब्रिाजक अंगे .. हमणां डॉ. नीलाञ्जना शाह लिखित "संस्कृत ग्रन्थोमां मळता 'मस्करिन्' शब्द विशे विचार" ओ लेख वांचवानो थयो. (प्र. Journal of the Gujarat Research Society - Vol. 57, July-December, 2012, page - 5863) आ लेखमां 'मस्करिन्' शब्दनी विविध व्युत्पत्तिओ विशे विचार करवामां आव्यो छे. त्यारबाद आ अंगे A.L. Basham नुं History & Doctrines of the Ajivikas पुस्तक पण जोयु.* पं. श्रीकल्याणविजयजी-लिखित 'श्रमण भगवान् महावीर' ** गत 'आजीवकमत-दिग्दर्शन' प्रकरणमां पण आ अंगे घणी उपयोगी माहिती अपाई छे. अत्रे आ त्रणे स्थाने अपायेली माहिती तेमज अन्य थोडीक सामग्रीने आधारे 'मस्करिन्' शब्दना मूल अंगे विचार करवानो उपक्रम छे.
पाणिनीय अष्टाध्यायीना सूत्र ६.१.१५४ "मस्कर-मस्करिणौ च वेणुपरिव्राजकयोः"मां मस्करिन् शब्दनो उल्लेख छे. उपलब्ध संस्कृत साहित्यमां मस्करिन् शब्दनो आ सौथी प्राचीन उल्लेख गणाय छे. आ सूत्र मुजब 'मस्कर' ओटले 'वंशदण्ड' अने 'मस्करी' अटले 'वंशदण्ड लईने फरतो परिव्राजक अवा अर्थो फलित थाय छे. पण महाभाष्यकारे अत्रे चोखवट करी छे के "न वै मस्करोऽस्याऽस्तीति परिव्राजकः । किं तर्हि ? 'मा कृषत कर्माणि, शान्तिर्वः श्रेयसी'त्याह अतो मस्करी परिव्राजकः ।" (मस्कर होवामात्रथी 'मस्करी' नथी कहेवाता, पण "तमे कर्मनुं आचरण न करशो, शान्ति ज तमारा माटे श्रेयस्कर छे" अम बोलता होवाथी 'मस्करी' कहेवाय छे.) काशिकाकार पण कहे छे, "मा करणशीलो मस्करी कर्मापवादित्वात् परिव्राजक उच्यते ।" पाणिनीय व्याकरणनी अन्य वृत्तिओ पण आ ज अर्थ दर्शावे छे. ढूंकमां, वैयाकरणोना * . प्र. मोतीलाल बनारसीदास, ई.स. २००९ ** प्र. शारदाबहेन एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर, ई.स. २००२ .