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________________ अनुसन्धान-६६ जइ तइया विरमंतो आरूढो जिणचरित्तपोयम्मि । अज्जदिणं रायाहं मुणीण होतो न संदेहो ॥३१॥ जइ तइया विरमंतो वयरयणगुणेहिं वड्डियपयावो । रयणाहिवोत्ति पुरिसो हुतोहं(हुंतो) सव्वाण वि मुणीण ॥३२॥ जइ तइया विरमंतो रज्जमहापावसंचयविहीणो । झत्ति खवितो पावं तवसंजमिओ अणं पि ॥३३॥ जइ तइया विरमंतो तवसंजमनाणसोहियाभरणो । . . . नाणाण किंपि नाणं पावितो अय(इ)सयं एन्हि ॥३४॥ इय जे बालत्तणए मूढा न करिति कहवि सामन्नं । सोयंति अणुदिणं ते जराय गहियाहमा पुरिसा ॥३५॥ एमेव महामोहेण मोहिया माणुसत्तणं लहिउं । परलोगहियं न कुणंति नेहपासेहिं पडिबद्धा ॥३६॥ बहले संसारवणे तिणग्गजलबिंदुचंचले जीए। . बंधइ लोए नेहं न याणिमो केण कज्जेण? ॥३७॥ मायावारुणिमत्तो मोहमहाजालपासपडिबद्धो । ' मयणसरपूरियंगो डोल्लइ संसारकंतारे ॥३८॥ जह जह बंधइ नेहं पियपुत्तकलत्तमित्तबंधे(धू?)हिं । तह तह खुप्पइ बहले संसारे दुक्खघोरम्मि ॥३९।। * * *
SR No.520567
Book TitleAnusandhan 2015 03 SrNo 66
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2015
Total Pages182
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size12 MB
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