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जुलाई - २०१४ अङ्गना प्रतीकरूपे ते ते श्लोक रच्यो हशे.
__ कवि प्रारम्भे ज प्रतिज्ञावाक्यमां बे वात स्वीकारे छे : "चैत्यषट्कबन्धचित्र" तथा "सालेख". अर्थात् आ विभागमां कर्ताए छ चैत्योनां बन्धकाव्यात्मक चित्रो अथवा चित्रकाव्यो, निर्माण करवानुं छे, अने ते 'सालेख' कहेतां चित्राकृति साथे लखवानुं छे. वळी, पंचासर-पार्श्वना चैत्यना चित्रमा तेना निर्माता वनराज (चावडा)नी तथा तेना गुरु आ. शीलगुणसूरिनी प्रतिमाओनुं पण आलेखन तेमणे वर्णव्युं छे. आ उपरथी स्पष्ट थाय के ते समयमां पण ते बेउ प्रतिमाओ ते चैत्यमां मौजूद हती.
प्रत्येक पद्यनी पछी, ते पद्य, स्थापत्यना कया अङ्गनुं आलेखन के प्रतिनिधित्व करे छे, ते अङ्गनां नाम पण आप्यां छे : आ पद्य तळियुं के फरसरूप छे, आ पद्यो निसरणीना बे बाजुना बे दण्ड छे; २-२ पद्यो वडे त्रण पगथियां रचायां छे. आम ने आम पांच तरङ्गोरूप पांच स्तोत्रोनां ४० पद्यो द्वारा ते समग्र जिनालयना स्थापत्य, चित्रात्मक आलेखन कविए करी आप्यु छे. अने त्यां चैत्यषट्कमहाहदअन्तर्गत पंचासरचैत्य-अन्तहद पूर्ण थाय छे.
ए पछी ऋषभप्रभु अने शत्रुञ्जयगिरिना चित्रालेखन-वर्णनात्मक द्वितीय अन्तहद शरु थाय छे. ४ स्तोत्र अने ४१ पद्योमां पथरायेला आ हदना पण ५ तरङ्गो छे.* आमां शत्रुञ्जयनो पर्वत, उपत्यका, पद्या, अधित्यका, त्रिलक्षक्वतोरण,
* वास्तवमां आ अन्तहदमां तरङ्गोनी गणतरीमां थोडीक मुश्केली जणाय छे. केम के अन्तहदनी शरूआतमां कवि प्रतिज्ञा करे छे के "तत्र पूर्वं तद्गिरितोरणचित्रतरङ्गौ तद्युगादिस्तवस्वरूपावत्र ज्ञेयौ।" (तेमां पहेला युगादिप्रभुनी स्तुतिस्वरूप शत्रुञ्जयगिरि अने तोरणनां. चित्रबन्धकाव्यना बे तरङ्गो छे.) पण शत्रुञ्जयगिरिचित्रबन्धस्तोत्रनी समाप्तिमां कविओ तेने स्तोत्रस्वरूप ज गणाव्युं छे, स्वतन्त्र तरङ्गस्वरूप नहीं. अने ज्यारे तोरणबन्धकाव्य समाप्त थाय छे त्यारे पुष्पिकामां ओ बे चित्रकाव्यो मळीने ओक महातरङ्ग थाय छे ओवी सूचना अपाई छे. माटे गिरिबन्धकाव्य अने तोरणबन्धकाव्य - ओ बेने अक तरङ्गनी अन्तर्गत गणवा के बे स्वतन्त्र तरङ्गो गणवा ओ मूंझवण थाय छे. . त्यारबाद गर्भागारादिने लगतां चित्रबन्धकाव्योनो एक महातरङ्ग छे. अने त्यार पछी देवकुलिकाओ अने शिखरना अङ्गोने सम्बन्धित चित्रबन्धकाव्यो छे. आ काव्योनी समाप्ति साथै ज अन्तहद समाप्त थाय छे. समाप्तिनी पुष्पिकामां आ काव्यो अङ्गे आ प्रमाणे विधान छे : "इति युगादिजिनस्तुतिमये तृतीयचतुर्थो युगपत्तरङ्गौ । पूर्वतरङ्गद्वयस्य प्रौढत्वादेते त्रयो
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