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________________ जुलाई - २०१४ १७७ २ । जंबूद्वीपना भरतमां रे मन..., मोहे घणुं श्रीकार रे मन.... अवर देश अनुचर थया रे मन..., देश सिरोहि सिरदार रे मन... सिरोही देस सोहांमणो रे मन..., देखता दुख जाय रे मन... नर नारि निरुपम सहु रे मन..., वसय सदा सूखदाय रे मन... सूरसरिता जिम सोहति रे मन..., नदियां निरमल निर रे मन... तिर तरंड विहंगसूं रे मन..., शीतल जीहां समीर रे मन... पग पग पांणी पंथमे रे मन..., वड जिम मोटा वृख रे मन... शीतल जल छाया सदा रे मन..., पंथी पांमे सूख रे मन... शालि तणां खेत संपजे रे मन..., नीका भरीया नीर रे मन... पाका आंबा तोडता रे मन..., केल करे बहु कीर रे मन... गिरीवर कंचनगिरि जिसा रे मन..., उन्नत शिखर आवास रे मन... निझरणां नदियां वहे रे मन....., षट् रितु बारह मास रे मन.... आगर सोहे अति भला रे मन..., साते धात सूरंग रे मन..., वस्तु विशेष जिहां घणां रे मन..., परिघल पांचे रंग रे मन... आंबा रायण आंबलि रे मन..., करेणा केलि खजूर रे मन...., बहू फल फूलें शोभता रे मन...., तरवर तरल सनूर रे मन... सरवर भरीयां सूंदरु रे मन..., पंखि करता केलि रे मन.... कमल सुगंधा ऊपरे रे मन..., षटपद करता गेलि रे मन.... वन उपवन आरांना रे मन...., पग पग न लहु पार रे मन.... अढार भार वनस्पति रे मन...., फल्यां फूल्यां सहकार रे मन.... इंम अनेक गुण शोभता रे मन...., सूंदर सीरोहि देश रे मन... कहिई जिहां लहीई नही रे मन.., दुरभिख डमर प्रवेश रे मन.... अथ काव्यम् - यत्रानेकोच्चदुर्गाऽचलविमलसरित्-सुन्दराराम-वापीकूपोत्तुङ्गागराम्भःसरसजलरुहाकीर्णसङ्कीर्णभूमौ । राजन्ते सन्निवेशा विपुलतरलसद्धाम्यधर्मप्रवेशा, सीरोहीदेशकोऽयं जगति विजयतां सर्वदेशावतंसः १ ९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520565
Book TitleAnusandhan 2014 08 SrNo 64
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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