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________________ १६४ अनुसन्धान- ६४ हितकारक आदिवे करि निज विरुद संभाली, कृपादृष्टि धार करि श्रीसंघ को अवश्य अवश्य करि वंदावोगा जी । उपगारी पुरुष मेघ की परि सर्वजीवका उपगार करते हैं, तिसतें हम भी आप ही के सेवक हैं । ज्यो आप ही सेवकों का धर्मोपदेश दे करि धर्मथिरताचरणरूप उपगार नही करोगे तो और कौंण करैगा? तिसतैं श्रीसंघकी वीनती प्रमाण अवश्य करोगा जी । हमारा जोर तो वीनती करणे का है, परन्तु श्रीसंघ की मनोरथ संपूर्ण करणा आपकै आधीन है। सो बहोत क्या लिखों? आप सर्व जाण हो । श्रीसंघ कों दर्शन दे करि श्रीसंघ का मनोरथ सफल करोगा जी । श्रीसंघ पिण आपका चरणारविंद को दरसन करसी सो दिन सफल गिणसी जी । तिसतैं आपका आगमन जणावणरूप पत्र वेगो दिरावोगा जी । ढील करावोगा नही जी । संघ लायक काम चाकरी होय सो फुरमावस्यो जी । संघ आपको आग्याकारी हैं सो जाणस्यो जी । देवसुगुरु परसादथी अत्र अछे सुखसात । श्रीजिना सुख लेख पण देज्यो धरि हित वात ॥१॥ छठ अठम दसम द्वादशम अर्द्धमास वलि मास । तप अनेक ईहां किण थयां पार न कोई तास ॥२॥ इण पर अनुक्रमें आवीया परव पजूसण सार । पुर सगले तिहां पाठवी आठे दिवस अमार ॥३॥ पोसह पडिकमणां प्रगट जिनपूजा जिन जान । ध्यांन ग्यांन दानादि ध्रम भविक करे बहु भांति ॥४॥ कल्पसूत्र नव वाचना भविक सुणें मन भाव । श्रीफल पूग प्रभावना दिनदिन चढते दाव ॥५॥ दान संवत्सरी पारणा साहमीवत्सल सार । आडंबर अधिका थका, कहेता नावै पार ॥६॥ अथ भास लिख्यते ए चाल ] भविजन भेटो रे शीतल जिनपती रे [ढाल सुखकर स्वामी रे चरम तीर्थंकरु रे, वरधमान जिनराज । दरसण जेहनो रे दरपण ज्युं दिपै रे, सोभित तेज समान ॥ भविजन वंदौं रे भावैं गछपती रे ॥१॥ आंकणी । Jain Education International - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.520565
Book TitleAnusandhan 2014 08 SrNo 64
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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