________________
लखवानी प्रथा छे.
२. क्वचित् एवं बने के प्रतिलेखक समक्ष जे आदर्श प्रति होय, जेना आधारे तेणे नकल करवानी छे; प्रतिमां ज पाठगत अनेक गरबड होय; दा.त. पाठ खोटा लखाया होय, पाठमां वाक्य/वाक्यो/शब्दगुच्छ लखवानां ज रही गयां होय; अथवा एक स्थाननो पाठ तेनी असल जग्याएथी खसी जईने बीजा स्थान साथे गोठवाई गयो होय; आवा संजोगोमां सम्पादक के संशोधकनी फरज बने छे के ते खोटा पाठने, मूळमां ज के पछी टिप्पणीरूपे, सुधारीने साचा स्वरूपमां दर्शावे; छूटी गयेल वाक्यादिने [ ] मां दर्शावे; अने पतित के स्थानान्तरित पाठने तेना यथास्थाने गोठवी आपे.
विगत एक-दोढ सैकामां मुद्रित थयेला तमाम महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोनुं पण आ प्रकारे सम्मार्जन, हस्तप्रतोने आधारे, खास थर्बु जोईए. ते वखते अनुपलब्ध, अने पछीथी उपलब्ध, साधनोनो उपयोग करवामां आवे, तो ते सर्व ग्रन्थो तेना साचा तेमज परिपूर्ण स्वरूपे आपणने मळी शके.
३. प्रतिलेखक अथवा तो कृतिकार/विवरणकारनी समक्ष, कोई एक कुळनी प्रति होय; तेमांनो कोई पाठ, गमे ते कारणे अशुद्ध के बंधबेसतो न होय; परन्तु शास्त्रना प्रत्येक अक्षरने वफादार एवा ते लोको, पोतानी सामेना उपलब्ध पाठने ज यथार्थ मानीने प्रतिलिपि करे के विवरण लखे; अने जो ते पाठ अने तेनो सन्दर्भ जे ते प्रकरण साथे सुसङ्गत नथी एवं तेमने प्रतीत थाय, तो पण तेओ पाठमां फेरफार न करे; परन्तु 'पोते आ वस्तु समजी शकता नथी' अथवा तो 'अमने अहीं आम लागे छे, पण साचुं शुं ते तो बहुश्रुत जाणे' एवं कहीने विरमी जाय - आ मान्य परिपाटी छे.
हवे बने एवं के पाछळथी, पछीना कोईक अभ्यासीने, ते ज ग्रन्थनी बीजी,बीजा कुळनी प्रति मळे; तेमां पेलो पाठ एकदम साचो-शुद्ध होय. अथवा तो बीजा कोई ग्रन्थमां ते पाठ उद्धृत थयेलो जोवामां आवे, अने ते साव शुद्ध होय. आवा संजोगोमां पेला विवरणगत-विवरणकार द्वारा स्वीकृत अने विवृत पाठनु सम्मार्जन करवू उचित गणाय के केम? ए प्रश्न अवश्य जागे. आवे प्रसंगे विवेकपूर्ण मार्ग ए जणाय छे के मूळ पाठ-स्थिति जेमनी तेम रहेवा दईने, () ब्रेकेटमां अथवा तो