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ऑगस्ट २०११
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३२ परिशिष्टो उपरांत एक परिशिष्टमां मूळ 'शब्दप्रभेद'नो पाठ जो आप्यो होत तो ते वधु उपयुक्त थात.
२. प्रबोधचिन्तामणिः; कर्ता : आ० जयशेखरसूरि; सं. मुनि हितवर्धनविजय; प्र० कुसुम-अमृत ट्रस्ट-वापी; सं. २०६७
जैन धर्म प्रसारक सभा-भावनगर द्वारा सं. १९६९ मां प्रकाशित ग्रन्थy पुनर्मुद्रण. उपमितिभवप्रपञ्चाकथानी पद्धतिथी रचायेलो पद्यबद्ध आ ग्रन्थ औपदेशिक ग्रन्थ छे.
सम्पादकजीए प्रस्तावनामां मूळ ग्रन्थकारनी तेमज प्रतिओ लखनार लेखकोनी अमुक भूलो पोते शोधी काढीने सुधारी होवानो दावो को छे. पोतानी जातने पण्डित अने श्रेष्ठ समजनारी व्यक्ति जे डहापण डहोळे ते केवू होय तेनो आमां नादर नमूनो आपणने प्राप्त थाय छे.
___ अंचलगच्छना प्रथम पुरुष श्रीआर्यरक्षितसूरि छे. ते गच्छ पोताना ते प्रथम गच्छपतिने युगप्रधान माने छे. परन्तु पूर्वधर आर्यरक्षित महाराज ते आ गच्छना आदिपुरुष होवानो दावो ते गच्छे कदापि क्यांये को नथी. आटलुं सा, सत्य समज्या विना ज सम्पादके आ विषये ते गच्छनी अजगती टीका करीने पोतानुं अनावश्यक ज्ञान(!) प्रदर्शित कर्यु छे. सम्पादके पोतानी प्रस्तावनामां टिप्पणोनी जे सूचि आपी छे, तेमां ग्रन्थकारनी क्षतिओ सुधारवानो उद्यम तेमणे को छे. ते तमाम स्थानो जोईए तो एमां ग्रन्थकारनी एक पण क्षति के भूल छ ज नहि; सम्पादकनुं तद्विषयक अज्ञान ज तेमने ते ते स्थानने भूल मानवा प्रेरे छे. हा, एक-बे स्थाने भूल लागे, पण ते लहिया थकी थयेली भूल होवानुं स्पष्ट समजी शकाय तेम छे. लहियानी भूलने ग्रन्थकारनी भूल समजवामां आपणी सम्पादन-अयोग्यता ज पुरवार थई जाय छे. एक ज दाखलो जुओ : पृ. २१२, श्लोक ३७५. आमां 'सना' शब्द कर्ताए प्रयोज्यो छे. 'सना' ए नित्य (सदा) अर्थनो अव्यय छे ए तो सर्वविदित छे. पण पण्डितमानी सम्पादकने कोशविषयक जाणकारी मेळववी जरूरी नहि लागी होय, एटले तेमने त्यां टिप्पणी करी दीधी के "अत्र 'सदा' इति शुद्धीकार्यम् ।"
ग्रन्थकार एक आचार्य छे, गच्छपति छे. तेमने आ हदे अज्ञ मानीने