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अनुसन्धान-५६
होती, मतलब के तेमां वस्तुओ जणाय छे खरी, पण तेमनो साक्षात्कार नथी थतो. तेथी आ ४ इन्द्रियो द्वारा थतो निराकार बोध ज्ञाननो ज भेद गणाय छे अने 'व्यंजनावग्रह' तरीके ओळखाय छे. व्यंजन- अर्थ(-विषय) तरीके नहीं स्थापित थयेला पुद्गलोनो अवग्रह- अस्पष्ट बोध -अवो अत्रे भाव छे. स्वभावथी ज व्यंजनावग्रहमां दर्शन करतां वधु अव्यक्तता होय छे..
वांचीने के सांभळीने, तेना पर विचारणा करीने, थतुं ज्ञान 'श्रुतज्ञान' गणाय छे. आ श्रुतज्ञानमां वस्तुओ 'जणाय' छे, पण 'देखाती' नथी. मतलब के अमनो बोध थाय छे, पण साक्षात्कार नथी थतो. तेथी ज श्रुतज्ञानशक्तिना ज्ञानात्मक ज उपयोग होय छे, दर्शनात्मक नहीं. ज रीते मनःपर्यवज्ञानना विषयभूत पदार्थो- बीजाना मनना विचारो जाणी शकाय छे, जोइ शकाता नथी. तेथी मनःपर्यवज्ञानशक्तिनुं पण दर्शन नथी होतुं.
अवधिज्ञानथी विषयभूत पदार्थो जाणी पण शकाय छे अने जोइ पण शकाय छे, तेथी अवधिज्ञानशक्तिना साकार-निराकार बन्ने उपयोग संभवे छे. साकार उपयोग ‘अवधिज्ञान' के 'विभङ्गज्ञान' अने निराकार उपयोग 'अवधिदर्शन' कहेवाय छे.
केवलज्ञानी भगवन्त तो केवलज्ञानशक्तिना बळे तमाम द्रव्य-पर्यायोने जुओ पण छे अने जाणे पण छे. तेमनुं आ जोवू 'केवलदर्शन' अने जाणवू 'केवलज्ञान' कहेवाय छे.
ओक वात खास नोंधपात्र छे के शास्त्रोमां दर्शनने सामान्यग्रहणात्मक कां छे.१ तेनो अर्थ ओ ज छे के तेमां घणी बधी वस्तुओ के पर्यायो सामान्यपणे (मतलब के समुदितरूपे, पोतपोतानी स्वतन्त्र ओळखाण साथे नहीं) देखाता होय छे. आ सामान्यग्रहणने वस्तुना सामान्य अंशना ग्रहणरूप समजी शकाय; पण तेथी कंइ 'वस्तुना सामान्य अंश- ग्रहण ते दर्शन' ओवी व्याख्या बांधी शकाय नहीं, कारण के दर्शन मूलतः निराकार पश्यत्ता (-जोवू) साथे जोडायेलुं छे.२ आ पश्यत्तामां थतुं सामान्यग्रहण वस्तुनी जेम तेना विशेषोने अंगे १. "जं सामन्नग्गहणं तं दंसणं" - नन्दीचूर्णि. २. "जह पासइ तह पासउ, पासइ जेणेह दंसणं तं से" - विशेषणवति । "येन
सामान्यावगमाकारेणाऽर्हन् पश्यति तद् दर्शनमिति ज्ञातव्यम्" - नन्दी. मलय. टीका