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________________ 3 निवेदन 'संशोधन' ए एक बहु-आयामी शब्द छे. प्रुफवाचनने पण संशोधन कही शकाय साहित्यिक सम्पादनने पण संशोधन गणी शकाय. इतिहास - पुरातत्त्वना अन्वेषण / उत्खननने पण संशोधन कहेवाय. अने प्राचीन-मध्यकालीन पोथीओना आधारे वाचना तैयार करवी तथा पाठशुद्धि करवी ते तो संशोधन छे ज. विज्ञाननी विविध शाखाओमां थी अवनवी शोधो ते पण संशोधन तरीके ज ओळखाय छे. एक मुद्दो स्पष्ट थई जवो जोईए. कोई पण क्षेत्रना संशोधको, कदी, कोई नवी चीज के वात के विगत पेदा नथी करता. सर्जन के उत्पादन ए संशोधकना कार्यक्षेत्रमां कदी न आवे. संशोधक तो जे वस्तु, वात के विगत, कालना गर्तमां गरक थई गई होय, वीसराई गई होय के कोईने ते जडी न होय, तेवी वस्तु / वात/विगतने शोधी काढीने जगत् समक्ष मात्र रजू ज करतो होय छे. खोवायेली, भूलायेली के बदलायेली बाबतने पुनः उजागर करवी, खोळी काढवी अने तेना सम्भवित साचा स्वरूपे रजू करवी, तेनुं ज नाम छे संशोधन. आवा संशोधनथी आपणी स्वीकृत धारणाओ के मान्यताओ पर प्रहार अवश्य थाय. केमके जे वात मूळभूत रीते प्रस्थापित होवा छतां, कोई पण कारणसर ते वीसराई गई के बीजा रूपमां परिवर्तित थई होय, ते वात, कोई संशोधकने तेनी शोध-प्रक्रिया दरम्यान पाछी जडी आवे, अने ते ज संशोधित वात मूळभूत अने प्रस्थापित होवानुं, ते योग्य प्रमाणो द्वारा पुरवार पण करी आपे; तो पेली बीजा रूपे चाली रहेली मान्यता-छूटे नहि तो पण - गलत होवानुं तो प्रमाणित थई ज जवानुं ! अने तेथी प्रचलित मान्यताने ज खरी मानवावाळा लोकोने ते वात अणगमती बनवानी ज. पण एवं थाय तेमां संशोधकनो शो दोष ? वस्तुत: मान्यता अथवा धारणानुं संशोधन ए ज खरेखरुं संशोधन छे. साचो शोधक कोई पूर्वगृहीत मन्तव्योने सनातन सत्य मानीने चाले नहि. मान्यताने तथ्य न मानतां तथ्यने ज मान्यता आपी शके ते ज खरो संशोधक बनी शके. एवा संशोधकनुं प्रदान सर्जकना प्रदान करतां जरा पण ओछु के ओछा मूल्यवाळु नथी होतुं. *
SR No.520553
Book TitleAnusandhan 2010 09 SrNo 52
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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