SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मार्च २०१० १११ सर्वांगसुन्दर, निरुजसिंह, कोकिलाव्रत आदि व्रतों के नामसाम्य से यह दृग्गोचर होता है ।४५ जिनप्रभसूरिद्वारा उपयोजित 'नैवेद्य' शब्द पर भी ब्राह्मण परम्परा की मुहर स्पष्टतः दिखायी देती है ।४६ जैन परम्परा तथा सिद्धान्तो से निगडित नये व्रतों का निर्माण भी इन्होंने किया है। उदाहरण के तौरपर कल्याणतप, इन्द्रियजय, कषायमथन, अष्टकर्मसूदन, समवसरण आदि व्रतों का निर्देश कर सकते हैं ।४७ आगमोक्त तपों की दुष्करता की तथा नये सुलभ व्रतों के निर्माण की जो बात जिनप्रभसूरि ने उठायी है वह जैन व्रतों के परिवर्तन की एक नयी दिशा सूचित करती है - जे पुण एगावली-कणगावली-रयणावली-मुत्तावली-गुणरयणसंवच्छरखुड्डमहल्ल-सिंहनिक्कीलियाइणो तवभेया ते संपयं दुक्कर त्ति न दंसिया ।४८ जिनप्रभसूरि मुगलसम्राट महम्मद तगलक के समकालीन थे। बादशाह पर उनका अच्छा खास प्रभाव था । इस राजाश्रय के आधारपर उनकी साहित्यिक प्रवृत्तियाँ कई दशकों तक जारी रही । मन्दिरनिर्माण और मूर्तिप्रतिष्ठापना इनके काल में बहुतायत मात्रा में हुई थी ।४९ इन सबसे यह लगता है कि जिनप्रभसूरिका जैन समाज पर बडा गहरा प्रभाव होगा । परिणामस्वरूप इनके व्रतविधान खाली किताबी न रहकर प्रचलन में भी आये होंगे । (५) व्रतविषयक साहित्य की चतुर्थावस्था : १५वी शताब्दी में जैन व्रतों ने एक नया मोड लिया । १५वी सदी का ब्रह्मसाधारणकृत 'वयकहा' यह अपभ्रंश भाषा में लिखित व्रतकथाओं का संग्रह, व्रतविषयक साहित्य की चतुर्थावस्था का द्योतक है । व्रतकथा में मुकुटसप्तमी, क्षीरद्वादशी, रविव्रत, कुसुमांजलि, निर्झरपंचमी आदि नये नये व्रत, संकल्प, विधि, उद्यापन, जिनपूजा, दान तथा केवल ऐहिक फल तथा स्वर्गप्राप्ति का वर्णन है ।५० व्रतकथा के बाद १६वी शताब्दी से लेकर १८वी शताब्दी तक व्रतकथाओं के संग्रहों की मानों बाढ सी आ गयी । जैन परम्परा में व्रतों का प्रचलन इस समय में बहुत ही बढता चला होगा । व्रतकथासंग्रहों की रचना ज्यादातर संस्कृत भाषा में ही हुई है । डॉ. वेलणकर लिखित 'जिनरत्नकोष' में बहुत सारे व्रतकथासंग्रहो का निर्देश है । लेकिन वे इस शोधलेख के लिए Jain Education International 2010-03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520551
Book TitleAnusandhan 2010 03 SrNo 50 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy