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________________ ९१२ अनुसन्धान ५० (२) मुझे उपलब्ध नहीं हुए। इन चारों अवस्थाओं के निरीक्षण से हम इस निष्कर्ष तक पहुंचते हैं कि - साधुव्रत तथा श्रावकव्रत आगमकाल से लेकर आजतक प्रचलन में आगमोक्त तप प्रथम विधि के तौरपर आये और बाद में दुष्करता के कारण सुलभ व्रतों में परिवर्तित हुए । आरम्भ में व्रत तथा तप का उद्दिष्ट कर्मनिर्जरामात्र था । धीरे-धीरे उसमें ऐहिक और पारलौकिकता आयी और अन्त में मोक्षफलप्राप्ति छोडकर स्वर्गतक सीमित हुई । जैन परम्परा के अनुसार इस पंचम काल में जब कोई जीव इस भरतक्षेत्र में मोक्षगामी होनेवाला नहीं है तब उनका स्वर्गप्राप्ति तक सीमित रहना ठीक ही लगता है । व्रत विषयक श्वेताम्बरीय प्राकृत साहित्य में, दिगम्बरीय व्रतविषयक संस्कृत साहित्य की तुलना में 'व्रत' शब्द का आम प्रयोग करने का प्रचलन बाद में आया हुआ दिखायी देता है । (६) जैन व्रतों के अवस्थान्तरों की कारणमीमांसा : • हिन्दु व्रतों में कालानुसारी जो परिवर्तन आये उसके अनुसार जैन व्रतों में परिवर्तन आना बिलकुल स्वाभाविक था क्योंकि अल्पसंख्य जैन समाज बहुसंख्य हिन्दु समाज के सम्पर्क में हमेशा ही था । इस सामाजिक सहजीवन का असर जैन व्रतों में भी दिखायी देता है। प्रवृत्तिप्रधान हिन्दुधर्म में पौराणिक व्रत प्रायः उत्सव स्वरूप और क्रियाकाण्डात्मक, विधिविधानों से भरे हुए थे। उनके प्रति आम जैन समाज का आकृष्ट होना स्वाभाविक था । जैन गृहस्थाचार में यद्यपि बारह व्रत शामिल थे तथापि वे निवृत्तिप्रधान और अमर्त थे । इसी वजह से गृहस्थाचार से सम्बन्धित तप से निगडित तथा जैन तत्त्वज्ञान से सुसंगत इस प्रकार के नये विधिविधानात्मक व्रत जैन आचार्यों ने बनाये । जैसे कि 'सम्यक्त्व' के आरोपण की विधि Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520551
Book TitleAnusandhan 2010 03 SrNo 50 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
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