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अनुसन्धान ५० (२) जैन परम्परा में भी आगमिक काल में, व्रतविधान, साधु द्वारा आचरित पंचमहाव्रत तथा श्रावक द्वारा स्वीकृत बारह व्रतों तथा तपों के स्वरूप में विद्यमान थे । इन महाव्रत, अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत तथा तपों को सुरक्षित रखते हुए अनेकानेक उपवास, पूजा, तप आदि रूप में जैनियों में व्रताचरण की प्रवृत्ति हुई । हिन्दु तथा जैन दोनों परम्पराओं के अन्तर्गत परिवर्तनों का लेखाजोखा भी इस शोधनिबन्ध में सारांश रूप से प्रस्तुत किया है ।
वैदिक तथा वेदोत्तरकालीन व्रत
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(१) 'व्रत' शब्द की व्युत्पत्ति :
हैं ।
व्रतशब्द के व्युत्पत्त्यर्थ में विद्वानों में बहुत सारे मतभेद दिखाई देते
डॉ. पा. वा. काणेजी ने व्रतशब्द 'वृ' तथा 'वृत्' इन दोनों धातुओं से व्युत्पन्न किया है । विविध मत देकर यह स्पष्ट किया है कि 'वृ- वरण करना' इस धातु को 'त' प्रत्यय लगाकर 'संकल्पित कृत्य', 'संकल्प' तथा 'इच्छा' इन अर्थों से 'व्रत' शब्द निकटता से जुडा हुआ है ।
(२) 'व्रत 'शब्द का अर्थ :
ऋग्वेद में 'ऋत', 'व्रत' और 'धर्मन् ' ये शब्द बार-बार दिखाई देते
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हैं । उनके अर्थों में भी अनेक बार निकटता दिखाई देती है । 'ऋत' का सामान्य अर्थ है - देवों के द्वारा आरोपित निर्बन्ध अथवा नियम । 'धर्मन्' का अर्थ है - धार्मिक विधि अथवा यज्ञ । डॉ. काणेजी कहते हैं कि क्रमक्रमसे 'ऋत'संकल्पना प्रचलन से चली गयी । उसकी जगह 'सत्य' शब्द का प्रयोग होने लगा । 'धर्म' शब्द सर्वसंग्राहक बना और 'व्रत' शब्द 'धार्मिक एवं पवित्र प्रतिज्ञा' तथा 'मनुष्य द्वारा आचरित निर्बन्धात्मक व्यवहार', इस सन्दर्भ में अर्थपूर्ण
बना । १
( ३ ) ' व्रत 'शब्द के समास तथा 'व्रत' के विविध अर्थ :
डेक्कन कॉलेज के संस्कृत - महाशब्द-कोश के स्क्रिप्टोरियम में अन्तर्भूत सन्दर्भों के कार्डस् पर नजर डालने पर यह पता चलता है कि ऋग्वेद में ‘सत्यव्रत’, ‘प्रियव्रत', ‘दृढव्रत' इ. समास हैं लेकिन 'अणुव्रत' समास नहीं है ।
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