________________
हिन्दु और जैन व्रत : एक क्रियाप्रतिक्रियात्मक लेखाजोखा
शीर्षक का स्पष्टीकरण :
वेद से प्रारम्भित होकर पुराण तथा विविध भक्तिसम्प्रदायों में विचार की जो धारा बहती चली आयी है उसे हम वैदिक, वेदोत्तरकालीन, ब्राह्मण या हिन्दु परम्परा कह सकते हैं । व्रतों के सन्दर्भ में पौराणिक काल में जो विचार अन्तर्भूत हुए है उनको इस शोधनिबन्ध में केन्द्रीभूत स्थान देकर हमने 'हिन्दु परम्परा' शब्द का उपयोग शीर्षक में किया है । यद्यपि हिन्दु तथा हिन्दुत्व इन दोनों शब्दों के बारे में अभ्यासकों में बहुत मतभेद है तथापि वेद से आरम्भ होकर उत्तरकालीन महाकाव्य, दर्शन तथा पुराण में जो विचारप्रवाह बहता चला आया है उसे हम एक दृष्टि से हिन्दु कह सकते हैं ।
शोधनिबन्ध का प्रयोजन :
डॉ. अनीता बोथरा
ब्राह्मण परम्परा से समान्तर बहती चली आयी दूसरी भारतीय विचारधारा श्रमण परम्परा के नाम से जानी जाती है । जैन और बौद्ध परम्परा में यह श्रामणिक विचारधारा साहित्य रूप में प्रवाहित हुई है । जैन विचारधारा श्रमण परम्परा में प्राचीनतम है । जैन साहित्य में प्रतिबिम्बित व्रतों का स्वरूप अपना एक अलग स्थान रखता है । हिन्दु और जैन दोनों धारा इसी भारतभूमि में उद्भूत तथा प्रवाहित होने के कारण उनमें हमेशा आदान-प्रदान तथा क्रिया-प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्तियाँ निरन्तर चलती आयी हैं । व्रत- विचार के बारे में इन दोनों में जो क्रियाप्रतिक्रियाएँ हुई उनका तर्कसंगत लेखाजोखा इस शोधनिबन्ध में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ।
हिन्दु अथवा ब्राह्मण परम्परा में प्रारम्भ के बहुतांश व्रत - विधान, विविध यज्ञीय क्रियाओं से सम्बन्धित थे । परिस्थितिजन्य कारणों से वे व्रतविधान उपवास, पूजा तथा विविध ऐहिक, पारलौकिक व्रतों में परिणत हुए । नेशनल संस्कृत कॉन्फरन्स, नागपुर, १, २, ३ मार्च २००९ में
प्रस्तुत शोधपत्र
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org