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डिसेम्बर २००९
करो दूगंछा का तम्यो राय ए तो छइ सोवन प्रतिमाय ।
अमृत आहार करूं हुं जदा एक कवल देउं प्रतिमा तदा ||२५| (२६) || तेणि गंधि तुम पाछा खसो चरम शरिरिं किम ओहोलसो ।
शरीरबंध हुउं सातइ धाति सुणो सोय नर ऊत्म जाति ||२६| (२७)।। रस लोही माटी निं मेद असथी मंजा शक्रसु भेद ।
एइ सातिं बंधाई देह ऊत्म त्याहा क्यम धरइ सनेह ||२७|(२८)।। चरम - कोथली माहिं हाड नरनिं दूरगतिं पडवा खाड ।
नथी पूरषनो वाक लगार मोहिं कीधा जाण गुमार ||२८| (२९) || जेनिं मोह ल्यख्यमीनो घणो छलिं करी द्रव्य लइ परतणो । जेनिं मोह घणो नीजकाय ते परजीव हणीनिं खाय ॥ २९ ॥ (३०) || ज़ेहनि मोहो नारि उपरि लया अलगी मुकइ धरिं
करी जाचना बल करी वरइ जोगी थई स्त्री पुंठि फरइ ||३०|(३१)॥ जाणइ सारम्हा सार छइ एह पणि ए सबल दूगंधि देह । ऊपरि सुदर, माहि असार जशो चीतर्यो ठंडील ठार (३११ (३२)॥
॥ दूहा ॥
अभ्यंतर वीष सम जाणीइ बाहइरि अमृत उदार ।
गुजा - फल सम जाणवा स्त्रीना भाव वीकार ||३२| ( ३३ ) || मीडानी परी वाटली राखडी राखी म जोय । नारी शिरि दीवो धरइ दूरगति पडवा तोय ||३३| (३४) ||
१२३
गाथा ||
जलकी भीति पवनका थंभा देवल देखी हुआ अशंभा । बाहइरि भीतर गंध दुगंधा तो कां भुलो मुरिख अंधा ||३४ | (३४) ॥
॥ दूहा ॥
कामभोग वीषशल समा वंछिं सुखनी हाणि ।
मल्ली कहइ नर सेवता लहीइ दुरगति खाणि ॥ ३५ ॥ ( ३६ ) ||
ईसि आगममाहा कहयुं ते अदीका संसारि ।
छता भोग छाडी करी नीज मन आणइ ठार || ३६ | ( ३७ ) ||
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