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________________ ६४ अनुसन्धान ४८ वह कोई देव या देवी नहीं है । किन्तु यह ज्ञातव्य है कि जब जैन देवमण्डल में शासन-देवता एवं विद्या-देवियों का प्रवेश हुआ तो उसके परिणाम स्वरूप 'श्रुत-देवता' की कल्पना भी एक 'देवी' के रूप में हुई और उसका समीकरण हिन्दू देवी सरस्वती से बैठाया गया । यह कैसे हुआ ? इसे थोड़े विस्तार से समझने की आवश्यकता है। जिनवाणी 'रसवती' होती है। अतः सर्वप्रथम सरस्वती को जिनवाणी का विशेषण बनाया गया (स+रस+वती) । फिर सरस्वती श्रुतदेवता या श्रुतदेवी बनी और अन्त में वह सरस्वती नामक एक देवी के रूप में मान्य हुई । अज्ञान का नाश करने वाली देवी के रूप में उसकी उपासना प्रारम्भ हुई । भगवतीसूत्र की लिपिकार (लहिये) की अन्तिम प्रशस्ति गाथाओं ईसा की ५ वीं शती पश्चात् हमें एक गाथा उपलब्ध होती है - जिसमें सर्वप्रथम गौतम गणधर को, फिर व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र) को, तदनन्तर द्वादश गणिपिटक को नमस्कार करके, अन्त में श्रुतदेवी को उसके विशेषणों सहित न केवल नमस्कार किया गया, अपितु उससे मति-तिमिर (मतिअज्ञान) को समाप्त करने की प्रार्थना की गई । वह गाथा इस प्रकार है कुमुय सुसंठियचलणा अमलिय कोंरट विंट संकासा । सुयदेवयाभगवती मम मतितिमिरं पणासेउ ॥ - भगवतीसूत्र के लिपिकार की उपसंहार गाथा-२ कुमुद के ऊपर स्थित चरणवाली तथा अम्लान (नहीं मुरझाई हुई) कोरंट की कली के समान, भगवती श्रुतदेवी मेरे मति (बुद्धि अथवा मतिअज्ञानरूपी) अन्धकार को विनष्ट करे । वियसियअरविंदकरा नासियतिमिरा सुयाहिया देवी । मज्झं पि देउ मेहं बुहविबुहणमंसिया णिच्चं ॥ जिसके हाथ में विकसित कमल है, अथवा विकसित कमल जैसे करतलवाली, जिसने अज्ञानान्धकार का नाश किया है, जिसको बुध (पण्डित) और विबुधों (विशेष प्रबुद्ध) ने सदा नमस्कार किया है, ऐसी श्रुताधिष्ठात्री देवी मुझे भी बुद्धि (मेघा) प्रदान करे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520548
Book TitleAnusandhan 2009 07 SrNo 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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