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________________ ५० सुश्री कौमुदी बलदोटा का शोधपत्र जैन श्रावकाचार में पन्दह कर्मादान : एक समीक्षा इस पर कुछ विचार मुनि कल्याणकीर्तिविजय जैन शासन या जैन परम्परा में अहिंसा का सबसे ज्यादा महत्त्व है । जैनों के सब व्रत - पच्चक्खाण- नियम आदि का एक ही उद्देश्य है- अहिंसाहिंसा से विरति । हिंसा दो प्रकार की है स्वरूप हिंसा, अनुबन्ध हिंसा । स्वरूप हिंसा याने दिखने में हिंसा लगे पर परम्परा से हिंसा न हो । अनुबन्ध हिंसा याने दिखने में शायद हिंसा न हो पर परम्परा से वहां हिंसा ही हिंसा हो । अनुसन्धान ४६ जैन शास्त्रकारों ने सर्वत्र इस अनुबन्ध हिंसा से ही विरत होने का उपदेश दिया है । शास्त्रों को सुनकर - समझकर - आत्मसात् कर, उन पर चिन्तन-मनन- अनुप्रेक्षादि करने से क्रमशः चित्त की परिणति शुद्ध होती जाती है । जैसे जैसे चित्त शुद्ध होता है वैसे वैसे व्यक्ति का व्यक्तित्व का परिवर्तन होता है; पाप छूटने लगते हैं, दोष कम होते हैं, क्षमा दयादि गुणों का विकास होता है और व्यक्ति हिंसा - अनुबन्ध हिंसा को समझकर उसका त्याग करता हुआ अहिंसक बनता हुआ क्रमश: सर्वथा अहिंसक बन जाता है । इसलिए शास्त्रकारों ने जहां-जहां जिस किसी भी क्रिया में हिंसादि दोष देखें उन सब को त्यागने का उन क्रियाओं से विरत होने का उपदेश दिया । और इस कार्य में उन्होंनें जहां से कोई भी धर्म-दर्शन से - जो कुछ अच्छा व उचित लगा वह सब स्वीकारा और उनका आधार लेकर जैन शास्त्रों में भी उपदेश दिया । - Jain Education International - अतः ऐसा कहीं देखा जाए तो उस पर अन्यान्य दर्शन- परम्परा का प्रभाव है और इसलिए वह ग्राह्य नहीं इत्यादि कहना उचित नहीं है । प्रभाव अवश्य है पर वह अनुचित वस्तुओं का नहीं है । और अच्छी बात For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520546
Book TitleAnusandhan 2008 12 SrNo 46
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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