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________________ ४४ अनुसन्धान ४६ परम्परा ने भी निम्न दर्जे के व्यवसाय समझकर निषेध किया होगा। मनुस्मृति के अनुसार सुतार, लुहार, कुम्हार, स्वर्णकार लोगों को शूद्र माना है तथा चाण्डाल जैसे लोगों को अतिशूद्र माना है । इसी वजह से इंगाली, वण, दन्त, लाक्षा, निल्लंछण, दवग्गिदावणया आदि व्यवसाय निषिद्ध व्यवसायों के तौरपर माने गये होंगे । वर्णव्यवस्था के अनुसार 'वैश्य वर्ण' शूद्र और अतिशूद्रों से उच्च माने गये हैं । यही धारणा पकडकर शूद्रों द्वारा किये गये व्यवसायों का निषेध किया गया होगा । श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र में तो साक्षात् मनुस्मृति का ही उल्लेख किया है - सद्यः पतति मांसेन, लाक्षया लवणेन च । त्र्यहेण शूद्रीभवति, ब्राह्मणः क्षीरविक्रयात् ॥ जब तक यह व्यक्तिनिष्ठ और छोटे पैमाने पर चलनेवाले व्यवसाय थे तब तक ठीक था । लेकिन आज विविध यन्त्रों की, कारागिरों की मदद से जब हरेक छोटे व्यवसाय का उद्योग (Industry) बनने जा रहा है तब इन व्यवसायों की ओर उच्चनीचता की दृष्टि से देखने की भावना नष्ट होती जा रही है । इसलिए आधुनिक परिप्रेक्ष्य में श्रावकाचार में पन्द्रह कर्मादानों की संकल्पना का औचित्य प्रायः लुप्तप्राय ही है। प्राचीनतम जैन आगमों में गृहस्थों के लिए जो षट्कर्म बताएँ हैं उनमें असि, मसि, कृषि, विद्या और वाणिज्य के अतिरिक्त शिल्प का भी उल्लेख है । समवायांगसूत्र में बहत्तर कलाओं के नाम भी दिए हैं ।११ अगर इन सबका प्रचलन जैन समाज में होगा तो पन्द्रह कर्मादानों को उसमें कोई अवकाश ही नहीं है। ये पन्द्रह कर्मादान कई बार अन्योन्याश्रित हो जाते हैं । इसी वजह से सन्दिग्धता भी पैदा होती है । 'रसवाणिज्ज' और 'जंतपीलण' इनमें भेद करना कठिन है। यन्त्रपीडन के बिना किसी भी प्रकार का रस या तेल संभव नहीं है । व्यवसाय के तौरपर यन्त्रपीडन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520546
Book TitleAnusandhan 2008 12 SrNo 46
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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