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________________ डिसेम्बर २००८ रत्नशेखरसूरि जैसे आचार्य अच्छी तरह जानते हैं । अगर इस प्रकार निषिद्ध व्यवसाय अनगिनत हैं तो उनकी ‘पन्द्रह' संख्या निर्धारित करना युक्तियुक्त नहीं है । साक्षात् पंचेन्द्रियों के वध पर आधारित व्यवसाय न करने का संकेत दिया होता तो वह भी काफी होता था । आश्चर्य की बात यह है कि मत्स्यव्यवसाय, कसाईखाना चलाना आदि व्यवसायों का इनमें निषेध के तौर पर निर्देश नहीं है। इसकी सम्भावना तो यह होगी कि अहिंसा की प्रधानता होने के कारण कोई भी जैनधर्मी इसे स्वाभाविकता से ही निषिद्ध समझता होगा । इसी वजह से अलग गिनती की जरूरी नहीं लगी होगी । भगवान महावीर के जीवनकाल में समाज के सामान्य स्तर के कई लोग उनके संपर्क में आए । लकडहारे, कुम्हार, सुनार आदि के उल्लेख आगमों में पाये जाते हैं ।९ आचारांग में स्पष्ट निर्देश है कि इन सब लोगों के निवासस्थान में या उनके नजदीक भ. महावीर ठहरते भी थे ।१० इनमें से कई लोगों ने श्रावकदीक्षा भी ग्रहण की थी । इनमें से किसी को भी भ. महावीर ने उनके निषिद्ध व्यवसाय त्यजने का निर्देश नहीं किया है । इस आगमिक प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि भ. महावीर के जीवनकाल में इन पन्द्रह कर्मादानों की मान्यता प्रचलित नहीं थी । कोई भी धर्मप्रचारक अगर धर्मान्तर के समय लोगों को उनका परम्परागत व्यवसाय छोडने को कहे तो धर्मप्रसार में जरूर बाधा उत्पन्न होगी । भ. महावीर के काल में तो जैन धर्म का प्रसार काफी मात्रा में हुआ था । यह एक सामाजिक तथ्य है कि जिस जिस समय जैन समाज पर हिन्दुधर्म का प्रभाव बढता गया उस समय जैन आचार में हिन्दु समाज में प्रचलित मान्यताओं का जोर बढता गया । प्रायः सातवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक हिन्दु धर्म की जात्याधार वर्णव्यवस्था का प्रभाव जैनों पर भी पडा होगा । इसी वजह से ब्राह्मणों ने जिनको शूद्रों के तथा अतिशूद्रों के व्यवसाय माने थे, उनको जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520546
Book TitleAnusandhan 2008 12 SrNo 46
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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