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निवेदन
संशोधन ओ बहुधा आनन्ददायक बाबत बनती होय छे; पण बहुधा; हमेशां नहि. ऊलटुं, घणीवार तो ते आघातजनक बनी जतुं होय छे. संशोधन हमेशां सत्यपरस्त अटले के सत्यतरफी पदार्थ होय छे, अने सत्यनो स्वभाव, मोटे भागे आघात आपवानो होय छे.
आघात जन्मावे तेवा संशोधननो अस्वीकार के तिरस्कार करे तेनुं नाम सम्प्रदाय. सम्प्रदायने जेटलो ‘पोताना स्वीकारेला सत्य' साथे लगाव होय छे, तेटलो लगाव 'संशोधनना सत्य' साथे नथी होतो. आथी ज संशोधन- सत्य उजागर थईने सामे आवे त्यारे सम्प्रदायमां (के साम्प्रदायिक मानसमां) भारे असुख व्यापी जतुं जोवा मळे छे.
धर्मनुं क्षेत्र कहो के तत्त्व, आवं आछकलुं नथी होतुं. धर्म स्वयं ओक सनातन सत्य तत्त्व छे, सत्यना पाया उपर ते निर्भर होय छे, अने सत्य सिवाय अन्य कशा साथे तेने लेवा-देवा होती नथी; माटे संशोधन- सत्य रजू थाय त्यारे धर्म वधु जळहळी ऊठे छे, वधु प्राणवान बने छे, वधु समृद्ध बने छे. वास्तविकता ओ छे के संशोधनना सत्यनो इन्कार ज धर्मने साम्प्रदायिक संकोच भणी धकेली मूके छे. आ स्थिति थकी बचवानो अने बहार आववानो उपाय एक ज : सत्यने-संशोधनना सत्यने मूलववानी विवेकदृष्टि केळवी लेवी, अने नीरक्षीरन्याये उचितनो स्वीकार अने अन्यनो अस्वीकार करवानी क्षमता प्रगटाववी.
महायोगीराज आनन्दघनजी महाराजनुं गणातुं अक प्रसिद्ध पद, 'अवसर बेर बेर नहीं आवे' ओ आनन्दघनजी- रचेलु पद नथी, परंतु तेमना करतां एकाद सैको वहेलां थई गयेल वैष्णव भक्तकवि सूरदास, रचेलुं छे, अने पाछळना काळमां ते आनन्दधनजीना नामे, बीजां केटलांक पदोनी जेम, चडी गयुं छे, आयूँ कहेवामां आवे, तो केटलो आघात थाय ! परन्तु, आपणने आघात थाय तेटला मात्रथी हकीकत कई बदलाई शके नहि.
खरेखर तो आपणे शोधक दृष्टि विकसाववी घटे. सांभळवामां सारं
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