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अनुसन्धान ४५ वच्चे जे सख्य कहो के साम्य सधायुं, ते जोतां, उपाध्यायजीना आलेखेला, मन्त्राक्षरसमा रहस्यमय शब्दो उपर देवचन्द्रजी महाराज विवरण लखे, ते ओकदम उचित, बल्के न्यायोचित बनी रहे छे. मात्र शास्त्रो भणी लईओ के शब्दोना व्युत्पत्ति अने निरुक्ति-प्राप्त अर्थ करतां आवडी जाय तेटला मात्रथी आवा ग्रन्थो पर विवरण करवानो के चर्चा करवानो अधिकार नथी मळी जतो. तेवो अधिकार तो त्यारे ज मळी शके, ज्यारे तमे, कोई ने कोई अंशे के रूपे, तेमना जेवा हो.
आत्मसाधक संत मुनि श्री अमरेन्द्र विजयजीने अकवार विनंति करेली : योगदृष्टि विशे आप काइक विवरण आपो, तो अमारा जेवाने तेनां साधनालक्षी रहस्यो मळे. जवाबमां तेमणे जणावेलु : "आ विषय पर विवरण करवा जेटली क्षमता तथा कक्षा हजी में मेळवी नथी, माटे हुँ नहि लखी
शकुं."
आ उपरथी आपणने समजाय के विवरणनो अधिकार अटले शुं ? ओ प्राप्त करवो केटलो आकरो होय छे, अने अ प्राप्त करवा माटे केटली आकरी साधना जरूरी होय छे ?
आ साधना अने आ अधिकार-बन्ने श्रीमद् देवचन्द्रजी पासे हता; अने आपणा परम सद्भाग्ये, तेओए ते अधिकारनो उपयोग पण कर्यो; जेनुं परिणाम छे ज्ञानमञ्जरी. केवू मीठडुं नाम ! साधना गमे तेटली कठोर भले होय, पण तेनुं लक्ष्य जो चिदानन्दनी मौज होय, तो तेनो साधक ज्ञानमञ्जरी सरजी शके; अने तो, ते सर्जन, टीकाग्रन्थ होवा छतां, स्वतन्त्र ग्रन्थरचनानुं गौरव पामी शके.
___हा, ज्ञानमञ्जरी ओ श्रीमद् देवचन्द्रजी- ओक आगवू ग्रन्थसर्जन छे. व्यवहारमा भले ते ज्ञानसारनी टीकार्नु नाम होय- टीका गणाती होय, पण तेमणे ग्रन्थना पदार्थोने जे रीते खोल्या छे, विकसाव्या छे; जे रीते अकओक पद्य अने तेना ओक ओक पदना मर्मने तेमणे पकड्यो छे, ते जोतां तेमनी आ टीकाने स्वतन्त्र-मौलिक ग्रन्थसर्जन कहेवामां लेश पण अत्युक्ति नथी थती.
वस्तुतः तो उपाध्यायजीना रचेला शब्दो साथे काम पाडवं ए ज
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