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अनुसन्धान ४५
ज्ञानसार-अष्टकना सन्दर्भमां पण आ वात ओटली ज साची-वास्तविक जणाय छे. धर्मतत्त्वना सन्दर्भमां थती भूलो जो हारिभद्रीय-अष्टक थकी दूर थाय, तो अध्यात्म-तत्त्वना सन्दर्भमां थती क्षतिओनुं निवारण करवा माटे ज्ञानसार-अष्टक सुयोग्य आलम्बन होवानुं अवश्य स्वीकारी शकाय.
जाणकारोना कथनानुसार, अध्यात्मसार तेमज ज्ञानसार- ओ बन्ने प्रकरणोमां उपाध्यायजीओ, आवश्यकता प्रमाणे दिगम्बर मन्तव्योनुं निरसन अथवा शुद्धीकरण भले कर्यु होय; परंतु ते सिवाय, समग्रपणे तपासीओ तो, श्री हरिभद्राचार्य तेमज श्रीकुन्दकुन्दाचार्यनां तात्त्विक प्रतिपादनोनो अद्भुत निचोड तारवीने, तेओए, आ बे प्रकरणोने, निश्चय-व्यवहारनां परम रहस्योथी छलकावी दीधां छे. तत्त्वविचारनो अर्क तारववानी अने सूक्ष्मेक्षिका थकी विरोधी भासता मतोमां समन्वय साधवानी आवी सूझ असामान्य ज गणी शकाय.
ज्ञानसारनी ज वात करीओ तो तेनो पहेलो श्लोक ज केटलो बधो मार्मिक अने अर्थपूर्ण छे ! आपणे, संसारवासी वैरागी गणाता जीवो, संसारने तुच्छ, असार अने अपूर्ण मानीने चालीओ छीओ त्यारे, ओक पूर्ण ज्ञानी आत्मानी नजरमां जगतनुं स्वरूप केयूँ होय तेनो अणसार- Outline , उपाध्यायजी, प्रथम श्लोकमां आपणने आपे छे. ते श्लोक लखती-रचती वेळाओ, कदाच, तेमनामां, परमज्ञानीने ज लाधती कोई अनिर्वचनीय अनुभूति संक्रान्त थई होय तो ना नहि ! तेओ लखे छे के “सच्चिदानन्द-घन अवा पूर्ण परम तत्त्वनी दृष्टिमां तो आ विश्व पूर्ण ज भासतुं होय छे." अर्थात् आपणने जगत अधूरुं भासतुं होय तो ते आपणी अधूरपनी निशानी गणाय; पूर्ण ज्ञानीनी नजरमां तो जगतमां कशुं ज अधूरं नथी होतुं.
आ श्लोक वांचतां ज चित्तमां उपनिषदनो पेलो मन्त्र झबकी ऊठे छ : ॐ पूर्णमिदं पूर्णमदः पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवाऽवशिष्यते ॥
- बधुं ज पूर्ण छे : आ पण, ते पण; अटले पूर्णमां ज पूर्ण ठलवाय छ; अने पूर्णमांथी ज्यारे पूर्णनी बादबाकी करीओ, त्यारे पण बाकी रहे ते पूर्ण ज होय छे.
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