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अनुसन्धान ४५
( अमर्यादित संग्रह) करने से, (३) पंचेन्द्रिय जीवों का वध करने से, (४) मांसभक्षण से । २९
यहाँ यज्ञनिन्दा स्पष्ट रूप में नहीं की है। लेकिन 'धर्मोपदेशमालाविवरण' में इन चार कारणों का सम्बन्ध स्पष्टतः यज्ञीय कृति से जोडकर उसकी निन्दा की है । ३०
(३) वेदाध्ययन, वेदों का तारकत्व तथा ब्राह्मणभोजन का महत्त्व : उत्तराध्ययन के १४ वे इषुकारीय अध्ययन में एक पुरोहित के दो पुत्रों का संवाद प्रस्तुत किया है । पुरोहित अपने विरक्त पुत्रों से कहता हैअहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे, पुत्ते परिट्ठप्प गिहंसि जाया ! | भोच्चाण भोए सह इत्थियाहिं, आरण्णगा होह मुणी पसत्था ॥ ३१
इस गाथा में वेदाध्ययन का महत्त्व, ब्राह्मणभोजन, पुत्रोत्पत्ति आदि गृहस्थसम्बन्धी क्रियाओं की अनिवार्यता पुरोहित के वचनद्वारा दर्शायी है पुरोहितपुत्र जवाब देते हैं कि
वेया अहीया न हवंति ताणं, भुत्ता दिया निंति तमं तमेण । जाया य पुत्ता न हवंति ताणं, को णाम ते अणुमन्नेज्ज एयं ? ॥३२
इस गाथा के द्वारा वेदों का तारणस्वरूप न होना, भोजन दिये हुए ब्राह्मणों का अधिकाधिक अज्ञानद्वारा यजमान को गुमराह करना, गृहस्थाश्रम की अनिवार्यता न होना इ. बातें स्पष्ट रूप से कही हैं ।
ब्राह्मणों को दिया हुआ भोजन पितरों तक पहुँचकर वे तृप्त हो जाते हैं इस मान्यता में जो अतार्किकता और असम्भवनीयता है उसका निर्देश इस संवाद में स्पष्टतः दिखायी देता है । इसलिए यद्यपि यहाँ पितरों का स्पष्टतः निर्देश नहीं है तथापि उस संकल्पना का निषेध ही यहाँ अन्तर्भूत या सूचित है ।
२९. व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र ) ८.४२५; स्थानांग ४.६२८
३०. धर्मोपदेशमालाविवरण पृ. ३०-३१
३१. उत्तराध्ययन १४.९
३२. उत्तराध्ययन १४.१२
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