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________________ सप्टेम्बर २००८ ७५ मार्कण्डेयपुराण में प्रार्थना के अनन्तर पितरों का तेज बाहर निकलना और उनके पुष्प, गन्ध, अनुलेपन से भूषित होने का निर्देश किया है।२७ पण्डित भिलवडीकरजी ने कहा है कि पितर मुख्यतः अमूर्त और वायुरूप होते हैं और तर्पण तथा श्राद्ध के समय मूर्तिमान बनकर आते (क) 'पितर' संकल्पना की जैन दृष्टि से समीक्षा : ऋग्वेद से लेकर पुराणों तक तथा अतिप्राचीन काल से आजतक पूरे भारत वर्ष में पितर, तर्पण, पिण्ड तथा श्राद्ध ये कल्पनाएँ दृढमूल दिखायी देती है । जैन परम्परा में प्राचीन काल से लेकर आजतक अपने आचारव्यवहार में इन संकल्पनाओं को अवसर नहीं दिया है । इसके मुख्यत: दो कारण है। . १. पितर संकल्पना का सुव्यवस्थित न होना । २. जैन दार्शनिक पृष्ठभूमि इस व्यवहार के लिए अनुकूल न होना । इन दोनों कारणों का विशेष ऊहापोह यहाँ किया है । (१) सुसूत्रता का अभाव : इसके पूर्व किये हुए विस्तृत विवेचन में इस मुद्दे पर अच्छी तरह प्रकाश डाला है । अतः यहाँ पुनरुक्ति नहीं कर रहे हैं । (२) यज्ञों की प्रधानता : ऋग्वेद में पितरों का सम्बन्ध यज्ञ से जोडा हुआ है । मनुस्मृति में तो पंचमहायज्ञों में पितृयज्ञ का स्पष्टतः उल्लेख है । जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं ने यज्ञीय परम्परा का जमकर विरोध किया है । 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' के ८ वे शतक में और 'स्थानांग' के ४ थे स्थान में नरकगति के बन्ध के चार कारण दिये हैं। (१) महाआरम्भ (अमर्यादित हिंसा) करनेसे (२) महापरिग्रह २७. मार्कण्डेयपुराण अध्याय ९४, श्लोक १४, १५ २८. पितर व पितृलोक पृ. १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520545
Book TitleAnusandhan 2008 09 SrNo 45
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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