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ग्रन्थभण्डारन सतत अने विपुल मात्रामां उपयोग थाय तो केटलांक पुस्तको फाटे पण खरां, खोवाय अने पाछां न आवे एवं पण बने. पण तेथी कांई ग्रन्थभण्डार बंध करी देवो के पुस्तको आपवानुं मांडी वाळवं, ते कांई ते बधांनो इलाज नथी. खरेखर तो जे ग्रन्थालयमांथी १२ महिने २५ - ५० पुस्तको फाटे तूटे अथवा तो वांचवा - भणवा गयां होय अने पाछां न आवे, तो ते ग्रन्थालयने माटे गौरवरूप बाबत गणाय : ए ग्रन्थालय जीवंत छे अने लोको तेनो खूब उपयोग करे छे ए ज एनाथी पुरवार थाय छे. जे ग्रन्थालयमांथी आ रीते पुस्तको ओछां के आघांपाछां नथी थतां, ते ग्रन्थालय तो ग्रन्थोनी वखार (गोडाऊन) मात्र गणाय, ज्ञानभण्डार के लायब्रेरी नहि ज. "
अलबत्त, नियमो अने नियन्त्रणो होवां ज जोईए. कोने अपाय, क्यारे ने केवी ते अपाय, केटला अपाय, आ बधां धाराधोरणो अनिवार्य जगणाय दुर्लभ प्रकारना पुस्तको बहार लई जवा न देवाय, अथवा तेनी नकल ज लई जवा देवाय, आ बधुं आवश्यक छे ज. परन्तु आ नियम- नियन्त्रणो तमाम पुस्तको परत्वे अने हंमेश माटे जो लागु पाडवामां आवे तो ते नियमजड ग्रन्थालय जते जहाडे अवावरु ग्रन्थवखारमा फेरवाई गया विना न ज रहे.
विडम्बना तो ए छे के भणवा - वांचवा माटे पण नहि अपातां पुस्तको, बजारमां वेचतां उपलब्ध थतां रहे छे. एनी अंदर जे ते ग्रन्थालयनां नाम, सिक्को, कार्ड वगेरे अकबंध होय, अने ते जोईए त्यारे सहेजे सवाल उद्भवे के कोईनेय नहि अपायेलुंअपातुं पुस्तक अहीं शी रीते पहोंच्युं हशे ? सार एटलो ज के वाचको अभ्यासीओ माटेनी सामग्री, ओछामां ओछु, उठांतरीना अने वेचाण द्वारा कोईने धनोपार्जनना काममां तो आवे छे !
लायब्रेरी, पुस्तकालय, ज्ञानभण्डार, ग्रन्थालय साथै काम पाडनार हरकोईने, आथी, एटलुं ज निवेदन करवुं छे के तमे ज्ञाननी परब मांडीने अथवा वारसामां मेळवीने बेठा छो; थोडुंक पाणी ढोळाई जाय के बगाड थाय तो गभराशो नहि, अने परबनो संकेो करीने बेसी रहेशो नहि. संघर्युं ज्ञान उधई - उंदरने खप आवशे, अने वपरातुं ज्ञान सचवाशे तो खरुं ज, वृद्धि पण पामशे. आपणे ज्ञानना रखेवाळ बनी, संवर्धक बनीए, वारसदार पण जरूर बनीए; पण ज्ञान - प्रसारमां अवरोध ऊभो करे तेवा चोकीदार न बनीए विद्या-प्रसारमां अवरोध ऊभो थाय तेवुं वर्तवुं ते तो एक प्रकारनो प्रज्ञापराध छे. सुज्ञ होय ते आनाथी अवश्य बचे.
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शी.
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