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________________ सप्टेम्बर २००८ ॥ गउड श्रीराग ।। अंधकार गमिले प्रगट प्रगासे, इणि कारणि दोषाकरु जले पतित पलासे ॥१॥ भमरा रंगु कियले कमल निवासे सुकरम दिनकर किरणि नियतु वगासे ।।दू०।। सुगुरु वचन रसो निज मनि आणी, मुनि मेरु समरइ जिनु परमारथु जाणी ॥ २ भमरा० इति गीतं ।। पूनिमरजनीकरु उपमा लावइ रमणी वदन कहं जनु रहसइ । धिगु लाला मल कफ जल पूरित अधम उतिम मानइ मोहवसे ॥१॥ भमियउ भमियउ जीवा एणि परे, चिन्तामणि बुधि काच गहिउ करे ।०। सिव पुरि चालतं मारगि वटपाडउ, मनसिज बाणिहि निघिण हणइ । एम न विंदति मानव हरखति, तरुणी नयनपेखि मूरख पणइ ।।भमि० ।।२।। अधर अधरगति संगति दायकु, परम पदिहिं जातु जीउ धरइ । वटफल जिम एह बाहिरि मनोहरु, अंतरंगु विचारतु चितु न हरइ ।भूमि० ।।३।। कुचयुग अमृतकलस जिम सोइह, इणि भ्रमि भूलउ म संसार सरे । धरम वाहन पंथि ए दुइ परवत, पार चाहसि तउ यतन करे ।भूमि० ॥४॥ दुरगंध असुचि लजा ऊपजावइ, तउवि तरुणी अंग जीउ सरइ । करम वाहितु न जपइ परमेसर, सुरसरि छोडि पंकि न्हाणु करइ ||भूमि०।५।। त्रिभुवनपति जिनचरण प्रसादि, भ्रम भंजिवि परबोधु लहइ । कमलसंजम उवझाय पद पंकज एकचितु मुनि मेरु एम कहइ ।।भूमि०।।६।। ॥ इति धनाश्रयिरागेणस्त्रीविरक्तिकारणगीतं ॥ ॥ श्री राग ॥ सकल मंगल कारणू रे, आरे वीतराग मइ भेटिउ युगादि देउ ॥१॥ भावइ रे भावइ जिणिंदू रे, आरे आदिनाथ पदि मनु लागिनला ॥०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520545
Book TitleAnusandhan 2008 09 SrNo 45
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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