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________________ मार्च २००८ सिरोही, माण्डवगढ़, मेडता आदि अनेक स्थानों पर आचार्यश्री ने प्रतिष्ठा करवाई थी । इन्हीं के उपदेश से जाबालीपुर (जालोरदुर्ग) तीर्थ पर विशाल चैत्य का निर्माण, प्रतिष्ठादि हुए थे । इनके द्वारा प्रतिष्ठित, लेख सहित, शताधिक मूर्तियाँ आज भी प्राप्त हैं । विजयदेवसूरि के पट्टधर विजयसिंहसूरि हुए ,जिनका जन्म १६४४, दीक्षा १६५४, वाचकपद १६७२ और सूरिपद १६८१ में प्राप्त हुआ था । स्वर्गवास १७०९ में हो गया था। किसनगढ़ के दीवान श्री रायसिंहजी-निर्मापित का चिन्तामणी पार्श्वनाथ मन्दिर आज भी इनका स्मरण करवा रहा है । स्वरूपट्टधर आचार्य विजयसिंहसूरि का स्वर्गवास होने पर श्री विजयदेवसूरि ने उनके पट्ट पर विजयप्रभसूरि को बिठाया था। सिद्धिविजय रचित विजयदेवसूरि भासद्वय का संक्षिप्त परिचय : महीमण्डल के राजवी श्री विजयदेवसूरि यहाँ पधारे हैं । सब उनको नमस्कार कर रहे हैं । उनको वन्दन करने के लिए चलें । दूसरे पद्य में सोलह शृंगारों से सुशोभित महिलाएँ भाल पर तिलक कर, मोतियों का थाल लेकर उनके स्वागत के लिए चलीं । गुरु के सन्मुख कुमकुम, केसर, केवडा के साथ घोल बनाकर गुरु के सन्मुख रंगोली करती हैं । चौथे पद्य में सभी सोहागिनी सुन्दर स्त्रियाँ नवरंग वस्त्र धारण कर एक किनारे खड़ी होकर गुरुजी के गुणगान कर रही हैं । सिद्धिविजय कहता है कि विजयदेवसूरि का नाम निरन्तर गाने से शिवपद प्राप्त होता है ।। दूसरे भास में - सरस्वती को नमस्कार कर कवि गुरु विजयदेवसूरिन्द . के गीत गाने की प्रतिज्ञा करता है, जिस प्रकार चन्द्र को देखकर चकोर हर्षित होता है उसी प्रकार आचार्य को देखकर आनन्दित होते हैं और उनके चरणों. में गुरुवन्दन करते हैं। दूसरे पद्य में विजयदेवसूरि मुनियों में चन्द्रमा के समान हैं, और कुमतियों को समूल नष्ट करने वाले हैं । बाल्यावस्था में जिन्होंने संयम धारण किया और गुरु के पास में शुद्धाचार का पालन किया ऐसे आचार्य हमें भवसागर में डूबते हुए भवियों के तारणहार हैं । तीसरे पद्य में सुमति-गुप्ति रूपी रमणियों के साथ रमण करने वाले हैं, इन्द्रियों का दमन करने वाले हैं, मुनियों के ताज हैं। जिनकी दन्तपंक्ति सोने की मेख से जटित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520543
Book TitleAnusandhan 2008 03 SrNo 43
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages88
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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