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अनुसन्धान ४२
दार्शनिक मान्यता के अनुसार धर्म-अधर्म आदि द्रव्यों का जितने क्षेत्र में अस्तित्व है उसे लोकाकाश कहते हैं । उसके परे अलोकाकाश है। धर्म-अधर्म को अगर गुरुत्वाकर्षण शक्ति माना जाय तो हम यह कह सकते हैं कि गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र लोकाकाश है और उसके बाहर का क्षेत्र अलोकाकाश है ।
उपसंहार
'धर्म' शब्द के बारे में पूरी दुनिया के विचारवंतों ने जितना विचार किया है उतना शायद किसी अन्य शब्द के बारे में नहीं किया होगा । जैन प्राकृत साहित्य में कौन-कौन से विशेष अर्थों से 'धर्म' शब्द का प्रयोग किया है यह इस शोध - लेख में अंकित किया हैं ।
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'वत्थुसहावो धम्मो' इस व्याख्या से जैन दर्शन ने विश्व के समूचे सजीव-निर्जीव वस्तुओं के अस्तित्व की व्यवस्था लगाई है । इसी वजह से जैन- दर्शन की गणना वास्तववादी दर्शनों में की जाती है 1 धर्मध्यान शब्द में उपयोजित 'धर्म' शब्द किसी भी साम्प्रदायिकता से दूर हटकर एक वैश्विक-धर्म की और अंगुलीनिर्देश करता है ।
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'लोकस्वरूप का चिन्तन करना भी जैन दर्शन के अनुसार 'धर्मध्यान' है । वैज्ञानिकों द्वारा एकाग्रचित्त से किये जानेवाले खोज भी इसमें समाविष्ट हैं ।
किसी भी तरह के क्रियाकाण्ड को धर्म न कहकर प्रशस्त चिन्तन रूप धर्मानुप्रेक्षा में 'धर्म' शब्द का प्रयोग करना, जैन दर्शन की विशेष उपलब्धि है ।
* क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि प्रशस्त गुणों को 'धर्म' कहा है । शुद्ध आचार से ये गुण आत्मा में अपने आप प्रकट होते हैं । सद्गुणों के इस सहज आविष्कार को जैन दर्शनने 'धर्म' कहा है ।
पाँच अस्तिकाय अथवा षड्द्रव्यों में धर्म, अधर्म तत्त्वों का समावेश
२१. Ethical doctrines in Jainism, कमलचंद सोगाणी
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