SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ डिसेम्बर २००७ है । तथा दुराचार एवं अधार्मिक आचरण आत्मा को संसार में रोकता है। रूढ अर्थ में धर्म और अधर्म इसके कारणभूत हैं । लेकिन जैन दर्शन में इतने मर्यादित अर्थ में इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया है। प्राचीन से प्राचीन प्राकृत आगमों में 'जीव और पुद्गल के गति और स्थिति को सहाय करनेवाले' इसी अर्थ में धर्म-अधर्म द्रव्यवाचक शब्दों की अवधारणा हुई है। कदाचित् शब्द साम्य होगा लेकिन धर्म और अधर्म ये द्रव्य निश्चित ही किसी वैज्ञानिक संकल्पना के वाचक है । धर्म-अधर्म में निहित वैज्ञानिक संकल्पना जैन दर्शन की वैज्ञानिक दृष्टि से चिकित्सा करनेवाले आधुनिक विचारवंतों ने धर्म-अधर्म संकल्पना का भी विचार वैज्ञानिक दृष्टि से सामने रखा है । कई विचारवंत सूचित करते हैं कि यह एक प्रकार की ऊर्जा (energy) है । लेकिन हमें लगता है कि यह ऊर्जा नहीं है । जब प्राचीन समय के जैन दार्शनिकों ने पर्वत, प्रासाद जैसी स्थिर वस्तुएँ, खुद होकर हलचल करनेवाले प्राणी तथा आकाश में नियमित रूप से गतिशील होनेवाले ग्रह, तारे आदि देखे होंगे तभी उनके मनके इनके गतिशील और स्थितिशीलता बारे में धर्म और अधर्म नाम की अवधारणा प्रस्फुरित हुई होगी । वह अवधारणा आकाश और काल से निश्चित रूप से अलग है । वैज्ञानिक परिभाषा में जिसे गुरुत्वाकर्षण शक्ति (gravitational force) कहते हैं, उसी शक्ति का अस्तित्व उन्होंने 'धर्म-अधर्म' इस परिभाषा में व्यक्त किया होगा। आज भौतिकी विज्ञान के इतिहास में यह लिखा हुआ है, कि सृष्टि के नियमों की खोज करते हुए 'सर आयझेक न्यूटन' को इस विशिष्ट शक्ति का एहसास हुआ । आगे जाकर अनेक वैज्ञानिकों ने इस संकल्पना का विकास किया । इस नियम पर आधारित अनेक उपकरण बनायें । लेकिन जैन दर्शन ने जब प्राचीन काल में धर्म-अधर्म नामक द्रव्यों की कल्पना की होगी उस समय भी उन्हें इसी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के नियम का ही एहसास हुआ होगा । विशेष बात यह है कि जैन दर्शन के सिवाय अन्य किसी भी पाश्चात्य-पौर्वात्य दर्शनों ने द्रव्य के स्वरूप इसका उल्लेख नहीं किया है ।२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520542
Book TitleAnusandhan 2007 12 SrNo 42
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages88
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy