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________________ ५६ अनुसन्धान ४२ उपयोजित 'धर्म' शब्द का स्वरूप इस प्रकार बताया है - वीतराग पुरुष की आज्ञा, खुद के दोष, कर्मों के विविध विपाक तथा लोक के स्वरूप का चिन्तन करना ।" किसी भी पारम्परिक तथा साम्प्रदायिकता से दूर हटकर इन चार शब्दों का प्रयोग 'धर्म' के अर्थ में करना जैन दर्शन की उपलब्धि है । - 'धर्म' के अन्तर्गत जब लोकस्वरूप का चिन्तन आता है तब वैज्ञानिकों द्वारा एकाग्रचित्त से किये जाने वाले सब मूर्त-अमूर्त विषयक खोज इस शब्द में समाविष्ट हो जाते है। जैन दर्शन में इस अर्थ में प्रयुक्त 'धर्म' शब्द जैनियों की वास्तववादी ( realistic) विचारधारा का द्योतक है । (३) धर्म : बारह में से एक अनुप्रेक्षा दार्शनिक दृष्टि से 'अनुप्रेक्षा' भी 'संवर' का एक साधन है । अनुप्रेक्षा का मतलब है, 'वारंवार चिन्तन' । अर्धमागधी तथा शौरसेनी ग्रन्थों में वारंवार चिन्तन के लिए बारह प्रमुख मुद्दे दिये है ।' 'धर्म' की अनुप्रेक्षा के बारे में विविध आचार्यों ने जो वर्णन किया है उसके आधार से हम कह सकते हैं कि श्रावक का तथा साधु का समग्र आचार इसमें वर्णित है । १० वर्णाश्रमप्रधान वैदिक ग्रन्थों में जिस प्रकार सभी वर्गों और आश्रमों के कर्तव्य किये जाते हैं उसी प्रकार उपर्युक्त ग्रन्थों में श्रावक तथा साधु के आचारविषयक कर्तव्य ही 'धर्म' शब्द से उल्लेखित है । वर्णप्रधान, जातिप्रधान या लिङ्गप्रधान आचार न देकर सिर्फ श्रावक या साधु के आचारविषयक कर्तव्यों का 'धर्म' शब्द में समावेश करना जैनियों की वैचारिक, सामाजिक उदारता का है । ८. धम्मे झाणे चउव्विहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहा- आणाविजए, अवायविजए, विवागविजए, संठाणविजए । स्थानांग ४.६५ अद्भुवमसरणमेगत्तमण्णा संसारलोगमसुचित्ता । आसवसंवरणिज्जर धम्मं बोधि च चिंतिज्जा ॥ मूलाचार ४०३ (५); ६९४ (८); द्वादशानुप्रेक्षा गा. २; कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. २, ३ १०. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. ३१८ ते ४८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520542
Book TitleAnusandhan 2007 12 SrNo 42
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages88
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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