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________________ . अनुसन्धान ४२ साहित्य में धर्मशब्द के प्रयोग पाये जाते हैं । विविध व्यक्तिवाचक नाम भी वैदिक तथा जैन परम्परा में उपयोजित किये हैं। (क) प्राकृत जैन साहित्य में उपलब्ध 'धर्म' शब्द के विशेषप्रयोग : विविध दर्शनों के विचार प्रस्तुतीकरण की अलग-अलग परिभाषा होती है। जैन-दर्शन में कई बार अन्य दर्शनों द्वारा प्रयुक्त शब्द, अलग अर्थ में भी पाये जाते हैं । जैन-दर्शन के मूलभूत प्राचीन ग्रन्थ अर्धमागधी तथा शौरसेनी प्राकृत में लिखे हैं । उनमें प्रयुक्त 'धर्म' शब्द के प्रयोग से हमें विशेष अर्थ प्रतीत होते हैं । (१) धर्म : वस्तु का स्वभाव जैन दर्शन वास्तववादी दर्शन है। जो अस्तित्व में है उसे वस्तु कहते हैं । सब वस्तुएँ छह द्रव्यों में विभाजित की है। विश्व में इसके अतिरिक्त कोई भी वस्तु नहीं है । इनको जैन परिभाषा में द्रव्य कहते हैं । ये षद्रव्य Empirical Realities हैं । इनके जो मूल स्वभाव है उन्हें 'धर्म' कहा है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार गइलक्खणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्खणो । भायणं सव्वदव्वाणं, नभं ओगाहलक्खणं ॥ वत्तणालक्खणो कालो, जीवो उवओगलक्खणो । नाणेण दंसणेणं च सुहेण य दुहेण य ॥ यद्यपि अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि सामान्य गुण सब द्रव्यों में विद्यमान है तथापि प्रत्येक द्रव्य का एक मूलभूत लक्षण है । उसको ही जैन परिभाषा में 'धर्म' कहा है । 'धर्म' की इस व्याख्या से हम विश्व के समूचे सजीव, निर्जीव वस्तुओं के अस्तित्व की व्यवस्था लगा सकते हैं। जैसे कि जीव का स्वभाव उपयोग (Consciousness) है । यही उसका धर्म है। पानी का स्वभाव शीतलता है यही उसका धर्म है। अग्नि स्वभाव उष्णता है यही उसका धर्म १. उत्तराध्ययनसूत्र २८.९ २. उत्तराध्ययनसूत्र २८.१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520542
Book TitleAnusandhan 2007 12 SrNo 42
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages88
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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