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( २ ) कनकमाणिक्यगणि कृत
महोपाध्याय अनन्तहंसगणि स्वाध्याय
अनन्त अतिशयधारी तीर्थङ्करों, गणधरों, विशिष्ट आचार्यों एवं महापुरुषों के नाम-स्मरण एवं गुणगान से हमारी वाणी पवित्र होती है। श्रद्धासिक्त हृदय से हमारी वाणी भी कर्मनिर्जरा का कारण बनती है । पूर्व में प्राय: करके ये समस्त गुणगान प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में हुआ करते थे, किन्तु समय को देखते हुए आचार्यों ने इन कृतियों को प्रादेशिक भाषाओं में भी लिखना प्रारम्भ किया । मरु-गुर्जर भाषा में रचित काव्यों को गहुँली, भास, स्वाध्याय, गीत आदि के नाम से कहा जाने लगा ।
अनुसन्धान ४२
प्रस्तुत कृति महोपाध्याय श्री अनन्तहंसगणि से सम्बन्ध रखती है । इस कृति का स्फुट पत्र प्राप्त हुआ है, जिसका विवरण इस प्रकार है :साईज २६४३, ११४३ से.मी. है। पत्र संख्या १, पंक्ति संख्या कुल १७ है । अक्षर लगभग प्रति पंक्ति ४५ हैं । लेखन संवत् नहीं दिया गया है, किन्तु १६वीं सदी का अन्तिम चरण प्रतीत होता है । स्तम्भतीर्थ में लिखी गई है। भाषा मरु- - गुर्जर है । कई-कई शब्दों पर अपभ्रंश का प्रभाव भी नजर आता है ।
इसके कर्ता श्री कनकमाणिक्यगणि हैं । इनके सम्बन्ध में किसी प्रकारका कोई इतिवृत्त प्राप्त नहीं है ।
महोपाध्याय श्री अनन्तहंसगणि प्रौढ़ विद्वान थे, और श्री जिनमाणिक्यसूरि के शिष्य थे । इस रचना के अनुसार तपगच्छपति श्री लक्ष्मीसागरसूरि ने इनको उपाध्याय पद प्रदान किया था और श्री सुमतिसाधुसूरि के विजयराज्य में विद्यमान थे ।
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- गणों
इस कृति के प्रारम्भ में उपाध्याय श्री अनन्तहंस गणि के गुण- का वर्णन किया गया है । लिखा गया है कि
ये जिनशासन रूपी गगन के चन्द्रमा हैं, त्रिभुवन को आनन्द प्रदान करने वाले हैं, नेत्रों को आनन्ददायक कन्द के समान हैं । मान रूपी मद का निकन्दन करनेवाले हैं । उपाध्यायों में श्रेष्ठ राजहंस हैं । सुधर्मस्वामी के
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