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October-2007
परिश्रम पूर्वक शोध करने पर वह दीवार पर लगा हुए दृष्टिगत हुआ । उस लेख को महाराणा और संघ ने भी देखा । ( उस शिलालेख में यह स्पष्ट अंकित था कि यह तीर्थ श्वेताम्बर जैन संघ का ही है ।)
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संवत् १९८० में ही जिनकृपाचन्द्रसूरि ने चार स्तवनों की भी रचना की । एक स्तवन में लिखा है :- गढ़धुलेवा के स्वामी ऋषभदेव कि उत्पत्ति का वर्णन करते हुए लिखा है कि यह मूर्ति पहले लंका में विराजमान थी और रावण नियमित रूप से पूजा करता था । पश्चात् यह मूर्ति उज्जैन में स्थापित हुई और श्रीपाल नरेश की कुष्ट व्याधि को दूर किया । उसके पश्चात् यह मूर्ति वागड़ देश के बड़ौद गाँव में विराजमान हुई और वहाँ से धुलेवा आई । (ये चारों स्तवन बृहद्स्तवनावली में प्रकाशित हैं । यह पुस्तक संवत् १९८४ में प्रकाशित हुई थी ।)
मुझे यह स्मरण में आता है कि लगभग ४० - ४५ वर्ष पूर्व श्री अगरचन्द्रजी नाहटा ने केसरियाजी तीर्थ के कुछ लेख मेरे पास भेजे थे । उनमें से अधिकांश मूर्तियों के लेख विजयगच्छीय ( मलधारगच्छ का ही एक रूप) श्रीपूज्यों द्वारा अनेकों मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी जो इस मन्दिर में विद्यमान हैं । विजयगच्छ की दो शाखाएँ थी - एक बिजौलिया कोटा की और दुसरी लखनऊ की । बिजौलिया शाखा के श्रीपूज्यों का आधिपत्य मेवाड़ देश में था, अतः इसी परम्परा के श्रीपूज्यों (श्रीसुमतिसागरसूरि, श्रीविनयसागरसूरि, श्री तिलकसागरसूरि आदि जिनका सत्ताकाल १८ - १९वीं शती है) ने प्रतिष्टाएँ करवाई थी ।
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जिस प्रकार दक्षिण भारत के तैलंगानाथक्षेत्र में कुलपाक तीर्थ माणिक्यदेव ऋषभदेव हैं । इस क्षेत्र के आदिवासी जनों के ये माणक दादा के नाम से मशहूर है । तैलंगवासी क्षेत्र के आदिवासी इनको माणकबाबा के नाम से पहचानते हैं । वार्षिक मेले पर ये आदिवासी पूर्व संध्या पर ही आ जाते हैं भक्तिभाव पूर्वक माणकबाबा की अपने गीतों में स्तवना करते हैं, मानता मानते हैं, दर्शन, विश्राम करते हैं और वापिस चले जाते हैं ।
जिस प्रकार अतिशय क्षेत्र महावीरजी मीणा जाति के आराध्य देव
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