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जुलाई-२००७ .
पञ्जिका नं. ६७५४/१, पृष्ठ १७६-१७७, लेखन संवत् १५८३, दयाकीर्तिमुनि द्वारा लिखित और पण्डित सिंहराज पठनार्थ की अवचूरि सहित इसि प्रति में भी जिनप्रभसूरिजी की कृति माना है। इस अवचूरि की पुष्पिका में लिखा है :- "इति शुभतिलक इति प्राक्तननाम श्रीजिनप्रभसूरिविरचित भाषाष्टक संयुतस्तवावचूरिः ।" इस प्रति की अवचूरि और प्रकाशित अवचूरि पृथक्पृथक् दृष्टिगत होती है । . इसी प्रकार श्री अगरचन्दजी भंवरलालजी नाहटा ने भी विधिमार्गप्रपा शासन प्रभावक जिनप्रभसूरि निबन्ध में और मैंने भी शासन प्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य में इस कृति को जिनप्रभसूरि कृत ही माना है।
श्री जिनप्रभसूरि रचित षड्भाषामय चन्द्रप्रभ स्तोत्र प्राप्त होता है । अतः शुभतिलक रचित इस स्तोत्र को भी जिनप्रभसूरि का मानना ही अधिक युक्तिसंगत है।
लघु खरतरशाखीय आचार्य श्रीजिनसिंहसूरि के पट्टधर आचार्य जिनप्रभ १४वीं सदी के प्रभावक आचार्यों में से थे । मुहम्मद तुगलक को इन्होंने प्रतिबोध दिया था । इनके द्वारा निर्मित विविध तीर्थ कल्प, विधिमार्गप्रपा, श्रेणिक चरित्र (द्विसन्धान काव्य) आदि महत्त्वपूर्ण कृतियाँ प्राप्त हैं । सोमधर्मगणि और शुभशीलगणि आदि ने अपने ग्रन्थों के कथानकों में भी इनको महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है । इनका अनुमानित जन्मकाल १३१८, दीक्षा १३२६, आचार्य पद १३४१ और स्वर्गवास संवत् अनुमानतः १३९० के आस-पास है।
३०-५-०७
प्राकृत भारती अकादमी १३-ए, मेन मालवीय नगर,
जयपुर
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