SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८० अनुसन्धान-४० है । विज्ञान के अनुसार-जो भी इन्द्रिय संवेदनायें वनस्पति में पायी जाती हैं उनके पीछे विचारशक्ति, मन अथवा मज्जासंस्था नहीं होती । वह केवल प्रतिक्षिप्त क्रियायें होती हैं। वनस्पति जो-जो संवेदनात्मक प्रतिक्रियायें देती है, वे सिर्फ रासायनिक या संप्रेरकात्मक प्रक्रियायें हैं । पाँच इन्द्रियधारी जीवों के साथ सपुष्प वनस्पति की तुलना की ही. जाय तो हम कह सकते हैं कि फूलवाली वनस्पतियों की जननेन्द्रिय 'फूल' है । श्वासोच्छ्वास की इन्द्रिय 'पत्ता' है । उत्सर्जन क्रिया हर वनस्पति में परिस्थिति के अनुसार अलगअलग होती है। वह पत्ते, तना और मूल सभी अवयवों के द्वारा होती है। * जैन ग्रन्थों में वनस्पति में समयज्ञान न होने का जिक्र किया है। आपाततः यह तर्क ठीक नहीं लगता । सूरजमुखी का सूरज की तरफ झुकना आदि क्रियायें वैज्ञानिक दृष्टि से सिर्फ रासायनिक संप्रेरकात्मक घटनायें हैं । इसमें जानबूझकर करने की कोई बात नहीं उठती । इसीलिए एक प्रकार से कहा भी जा सकता है कि उनमें समय का ज्ञान नहीं है । समयानुसारी वर्तन तो उनमें मौजूद है पर वह ज्ञानपूर्वक नहीं है । * जैन दृष्टि से शाकाहार ही सर्वथा योग्य आहार है । शाकाहार के अंदर भी बहुत सारी चीजों को ग्राह्य और त्याज्य माना है। साधु और श्रावक के लिए भी खानपान के अलग-अलग नियम हैं । विज्ञान ने शाकाहारमांसाहार दोनों के गुणधर्म बतलाये हैं और उसकी ग्राह्यता और त्याज्यता व्यक्तिपर निर्भर रखी है। वैज्ञानिक दृष्टि से कन्दमूल, हरी सब्जियाँ तथा अंकुरित धान्य काने का निषेध तो है ही नहीं बल्कि उनमें प्रोटिन्स और विटामिन्स बहुत ज्यादा मात्रा में होने का निर्देश है । जैन शास्त्रों में जिनजिन चीजों को आहार में निषेध किया है उनको विज्ञान से पुष्टि नहीं मिल सकती । ___वैदिक परम्परा की आहारचर्चा और आहारचर्या प्राय: वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मेल खाती है । * वैदिक परम्परा में आयुर्वेद को पंचम वेद का दर्जा दिया गया है । आयुर्वर्धन तथा रोगनिवारण हेतु वनस्पतियों से विविध प्रकार की औषधियाँ बनाने की प्रक्रियायें उसमें वर्णित हैं । जैन दर्शन में आयुर्वर्धन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520540
Book TitleAnusandhan 2007 07 SrNo 40
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages96
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy