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________________ . जुलाई-२००७ ७९ उपलब्ध ज्ञान के आधारपर वैज्ञानिकों ने उसका अस्तित्व केवल पृथ्वी पर ही होने के संकेत दिये हैं । * जैन मान्यतानुसार वनस्पति का मूल जीव एक है और उसके विभिन्न अवयवों में अलग-अलग विभिन्न असंख्यात जीव होते हैं । वनस्पतिशास्त्र के अनुसार वनस्पति केवल विभिन्न अवयवों की पेशियों का एक दूसरे से जुडा हुआ संघात है । विज्ञान ने पूरे वनस्पति में व्याप्त एक जीव को मान्यता नहीं दी है। वृक्ष के किसी भी अवयव की पेशी का डीएनए देखकर हम पूरे वृक्ष का पता लगा सकते हैं । पेशियों का अलग-अलग अस्तित्व होकर भी उनमें जो साम्य है वह ध्यान में रखकर जैन ग्रन्थों में एक मूल जीव और बाकी असंख्यात जीवों की बात कही गयी होगी। * जैन मान्यतानुसार सभी वनस्पतियाँ सम्मूच्छिम हैं । इसलिए वे नपुंसकवेदी हैं । वैदिकों के अनुसार वनस्पति में लिङ्गभेद है तथा वंशवृद्धि के लिए नर-मादा-सङ्गम आवश्यक है । सपुष्प और अपुष्प वनस्पतियों के प्रजनन के बारे में जो विचार वैदिकों ने किये हैं, वे प्राय: वैज्ञानिक दृष्टि से योग्य लगते हैं । जैन शास्त्रकारों ने 'बीज' शब्द का नपुंसकलिङ्ग तथा बीज बोने से उसकी उत्पत्ति यह ध्यान में रखकर उन्हें नपुंसकवेदी कहा होगा । मूल, स्कन्ध आदि से उत्पन्न होनेवाली वनस्पति को देखकर उन्हें भी 'नपुंसकवेदी' कहा होगा । सपुष्प वनस्पति में होनेवाली नरमादा बीजों का मिलन उन्होंने नजरअंदाज किया होगा । * जैन मान्यतानुसार वनस्पतिकायिक जीव को एकही इन्द्रिय अर्थात् 'स्पर्शन' इन्द्रिय है । अभ्यासकों के अनुसार यद्यपि उनमें स्पर्शनेन्द्रिय के अलावा और चार इन्द्रियाँ तथा मन प्रत्यक्षतः द्रव्यरूप से मौजूद नहीं है तथापि चार इन्द्रियाँ तथा मन की शक्ति उसमें भावरूप से मौजूद है । - महाभारत तथा सांख्यकारिका के अनुसार वनस्पति पाँचभौतिक है और उसमें पाँचों इन्द्रियाँ तथा मन होता है। वैज्ञानिक दृष्टि से इन्द्रियधारी जीवों की तरह वनस्पति में स्पष्ट रूप से एक भी इन्द्रिय मौजूद नहीं है । लेकिन सभी इन्द्रियों के कार्य वनस्पति अपनी त्वचा के माध्यम से ही करती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520540
Book TitleAnusandhan 2007 07 SrNo 40
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages96
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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