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________________ जुलाई - २००७ ही है । उत्क्रान्ति से विकसित सभी सजीव सृष्टि की वह आधारभूत संस्था है । वनस्पतियों में जो जीवशक्ति है उसके आधार पर ही क्रम से प्रगत जीवसृष्टि की निर्मिती हुई है । वनस्पतियों ने भी काल तथा परिस्थिति के अनुसार समायोजन करके खुद में परिवर्तन किये हैं । जैन दृष्टि में प्रत्येक द्रव्य, द्रव्य-क्षेत्र-काल- भाव के अनुसार हमेशा परिणमित होता रहता है | १८ जैन मान्यतानुसार वनस्पति का मूल जीव एक है और वह वनस्पति के पूरे शरीर में व्याप्त है । अन्य ग्रन्थों में यह भी कहा है कि वनस्पति के विभिन्न अवयवों में अलग-अलग विभिन्न प्रकार के जीव होते हैं । वैज्ञानिक दृष्टि से इसकी उपपत्ति इस प्रकार दी जा सकती है । वनस्पति शास्त्रानुसार वनस्पति के अवयवों में भिन्न भिन्न प्रकार की पेशियाँ होती हैं । लेकिन उनका डीएनए समान होता है । वृक्ष के किसी भी अवयव की पेशी का डीएनए देखकर हम पूरे वृक्ष का पता लगा सकते हैं । पेशियों का अलगअलग अस्तित्व होकर भी उनमें जो साम्य है वह ध्यान में रखकर जैन ग्रन्थों में एक मूल जीव और बाकी असंख्यात जीवों की बात कही गई होगी । अर्थात् विज्ञान ने भी सम्पूर्ण वनस्पतिशास्त्र में एक जीव की संकल्पना नहीं की है । (५) वनस्पति में वेद (लिङ्ग) वैदिकोंने वनस्पतियों को 'उद्भिज्ज' कहा है । १९ कठोपनिषद् के अनुसार कुछ उच्च जाति की वनस्पतियों की जननक्रिया प्राणियों की जननक्रिया से मेल खाती है । २० वनस्पति के प्रजनन का विचार मुण्डक, छान्दोग्य और बृहदारण्यक उपनिषदों में किया हुआ है। हारितसंहिता तथा चरकसंहिता के अनुसार वनस्पति में लिङ्गभेद है तथा वंशवृद्धि के लिए नरमादासंगम आवश्यक है । २१ सपुष्प और अपुष्प वनस्पतियों की पुनरुत्पत्ति का तरीका अलग-अलग होने का स्पष्ट संकेत इससे पाया जाता है । वैज्ञानिक १८. तत्त्वार्थसूत्र ५.४१ १९. वैशेषिकसूत्र ४.२.५ २०. कठोपनिषद् १.१.६ २१. भारतीयसंस्कृतिकोश Jain Education International ७१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520540
Book TitleAnusandhan 2007 07 SrNo 40
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages96
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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