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जान्युआरी-2007
श्री श्रीधर प्रणीत गुरुस्थापना-शतक
म. विनयसागर पञ्च परमेष्ठि महामन्त्र में पञ्च परमेष्ठि देवतत्त्व और गुरुतत्त्व का वर्णन है । देवतत्त्व में अरिहन्त और सिद्ध का समावेश होता है । गुरुतत्त्व में साधु, उपाध्याय और आचार्य का समावेश होता है । धर्मतत्त्व सद्गुरु की कृपा से ही प्राप्त होता है । केवली प्ररूपित दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप धर्म के अङ्ग हैं । इस लघुकायिक ग्रन्थ में गुरुतत्त्व का विस्तार से निरूपण हुआ है।
इस शतक के कर्ता श्रीधर हैं । इस ग्रन्थ में कहीं भी गुरु का या संवत् का उल्लेख नहीं है । अतः यह निर्णय कर पाना सम्भव प्रतीत नहीं होता कि श्रीधर' श्रमण है या श्रावक । तथापि यह निश्चित है कि इसकी रचना महाराष्ट्री व प्राकृत में हुई है, न कि प्राकृत के अन्य भेदों मे । रचना सौष्ठव, पदलालित्य और प्राञ्जलता को देखते हुए इसका रचनाकाल अनुमानतः १३वीं-१४वीं सदी निर्धारित किया जा सकता है । इसमें सन्देह नहीं कि श्रीधर श्रमण हो या श्रावक, गुरुतत्त्व का व्यापक अनुभव रखता है । उत्तराध्ययन सूत्र, भगवती सूत्र और तत्त्वार्थ सूत्र का श्रीधर ज्ञाता था। दुप्पसहसूरि का उल्लेख होने से यह भी सम्भावना की जा सकती है कि तन्दुलवैचारिक प्रकीर्णक का भी ज्ञाता था । अत: यह भी निश्चित है कि यह श्वेताम्बर ही था ।
गुरुस्थापना शतक का 'जैसलमेर हस्तलिखित ग्रन्थसूची', 'जिनरत्नकोष' एवं 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' में इस कवि का या इस लघुकाव्य ग्रन्थ का उल्लेख न होने से यह दुर्लभ ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ किस भण्डार का है इसका मुझे भी स्मरण नहीं है । स्वर्गीय आगम प्रभाकर मुनिराज भी पुण्यविजयजी महाराज से उनके विद्वान् साथी श्री नगीनभाई शाह लिखित प्रतिलिपि सन् १९५१ में प्राप्त हुई थी । १. गाथा क्र. ९८-१०१ पढने से श्रीधर श्रावक था यह स्पष्ट हो जाता है । शी..
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