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जान्युआरी-2007
ढाल - २ वसंतफाग
(कर्मक्षयकृत ११ अतिशय) सुर-तिरि-नर कोडाकोडी, जोअणमांहि समाइ । ए अतिशय कहिउ पांचमुं, हिवई छुटुं कहिवाइ ॥९॥ दान-सीयल-तप-भावना, चिहुं परि धर्म कहति । जोअण लगई सुर-नर-तिरि, भाषा सहुं प्रीछंति ॥१०॥ हिवइ सातमुं अतिशय रुअडु, भामंडल झलकंति । प्रभु पूठिइंथी सांवरइ, तेजई अति सोहंति ॥११॥ पणवीस जोअण दुह(दह)दसि, संकट-रोग-शमंति । ए ठकुराई जिन ! तुम्ह तणी, जोवानी मन खंति ॥१२॥ ए अतिशय कहिउ आठमु, मनि धरी नुअमु जोइ । जिहां विहार करइ जिन चिहु-दसि तणी दसि वइर न होइ ॥१३॥ जिहां समोसरइ जिन, दसमइ तिहां सातइ ईति न हुति । मरगी मांद(गी) नु हइ इग्यारमइ, जिहां जिनवर विचरंति ॥१४॥ अतिवृष्टि नु हइ बारमइ, तेरमई नही लघूवृष्टि ।। दुर्भिख्य न हइ वली चउदमइ, जिहां जिननी हुइ दृष्टि ॥१५|| स्व-परचक्रभय नु हवइ, पनरमइ जिहां जिन वास । ए अग्यार अतिशय कर्मखय, च्यार सहजि तुम्ह पास ॥१६॥
ढाल - ३ नाभिनरिंदनी
(देवकृत १९ अतिशय) सुरना कीधा जोइ, उगणीस अतिशय, जिनजीनां तुम्हे सांभलु ए । धर्मचक्र आकाश, प्रभू आगलि थाय, चालइ अतिशय सोलमइ ए ॥१७॥ सतरमइ चामर दोइ, ढालइ देवता, बिहुं पासे रही हर्षस्यु ए ।
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