SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निवेदन संशोधन ए एक रीते सत्यशोधननी घणी नजीकनी प्रवृत्ति छे. साचो पाठ शोधवो-नक्की करवो तो कृति-संशोधन. साचो इतिहास शोधवो ते इतिहास-संशोधन. साचो अर्थ निश्चित करवो ते अर्थ- के विषय- शोधन. आ बधांये संशोधनो साथे 'साचो' शब्द अनिवार्यपणे जोडाई गयो छे ते जोई शकाशे. आथी ज लागे छे के संशोधन ए सत्यने पामवानो अने असत्यथी उगरवानो स्वस्थ अने निरामय मार्ग छे. परन्तु संशोधन ए सत्यशोधननो मार्ग त्यारे ज बने के ज्यारे चित्तमां संशोधननी दृष्टि विकसी होय अने ते संशोधक-वृत्तिरूपे परिणमी होय. तेवी दृष्टि तथा वृत्ति विकसी गई होय तेने माटे संशोधन ए Full time के Part time JOB न बने; अथवा आटली समयमर्यादामां आटलां Papers नहि लखुं तो प्रमाणपत्र के वेतनवृद्धि के बढती वगेरे लाभो नहि मळे, माटे Papers घसडी ज नाखू, एवी मांदली मनोवृत्तिजन्य वेठ न बने. बल्के पछी तो संशोधन एनो धर्म बनी जाय; एनी नजर पडे त्यां एने सत्य जडतुं ज आवे, अने असत्य के गलत पाठ, मान्यता, अर्थ, इतिहास इत्यादि तेने कठतां ज रहे. संशोधननो व्यवसाय ए शोधक-दृष्टिना विकासनी खातरी आपे ज एवं हमेशां नथी होतुं. उदाहरण माटे आजकाल आपणे त्यां तैयार थतां Ph.D. माटेना महानिबन्धो जोवा जोईए. अपवाद होय तेने बाद करतां, महदंशे, संशोधक-दृष्टिविहीन एवा व्यवसायी संशोधननां तेमां उघाडां दर्शन थया विना नहि रहे. आq बने त्यारे 'संशोधन=सत्यशोधन' एवं समीकरण जोखमाय छे. संशोधनमा जेम 'बाबावाक्यं प्रमाणं' न चाले, तेम 'थोडा इधरसे, थोडा उधरसे' एवं सगवडियुं संयोजन पण न चाले. - शी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520538
Book TitleAnusandhan 2007 01 SrNo 38
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy