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________________ June-2005 महोपाध्याय - श्री समयसुन्दरगणिरचिताः मेघदूत - प्रथमपद्यस्याभिनव-त्रयोऽर्थाः ( मेघदूत प्रथम पद्य के ३ अभिनव अर्थ ) 27 "महाराणा कुम्भा रा भींतड़ा अर समयसुन्दर रा गीतड़ा" की प्रसिद्ध लोकोक्ति के अनुसार महोपाध्याय समयसुन्दर अकबर प्रदत्त युगप्रधान पदधारक श्री जिनचन्द्रसूरि के प्रथम शिष्य श्री सकलचन्द्रगणि के शिष्य थे । सकलचन्द्रगणि का छोटी अवस्था में स्वर्गवास हो गया था । सं. म. विनयसागर समयसुन्दरजी ने अपनी प्रत्येक कृतियों में 'खरतरगच्छीय श्री जिनचन्द्रसूरि के प्रथम शिष्य सकलचन्द्रगणि का मैं शिष्य हूँ' ऐसा उल्लेख किया है, किन्तु कुछ विद्वानों ने 'तपागच्छीय सकलचन्द्रगणि का शिष्य मानकर समयसुन्दरजी तपागच्छ के हैं', इस प्रकार का प्रतिपादन किया है जो कि पूर्णतया भ्रामक है । महाकवि धनपाल ने "सत्यपुर महावीर उत्सव' में जिस नगर की ओर संकेत किया है उसी सत्यपुर अर्थात् सांचोर में कवि ने जन्म लिया था । ये पोरवाल (प्राग्वाट) जाति के थे और इनके माता-पिता का नाम लीलादेवी और रूपसी था। मेरे मतानुसार इनका जन्म वि.सं. १६१० के लगभग हुआ था । वादी हर्षनन्दन ने अपने समयसुन्दर गीत में "नवयौवन भर संयम ग्रह्यौजी" के अनुसार अनुमानत: वि.सं. १६२८ - ३० के मध्य इनकी दीक्षा हुई होगी । वाचक महिमराज (जिनसिंहसूरि) और समयराजोपाध्याय इनके शिक्षा-गुरु थे । विक्रम सम्वत् १७०३ चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन अहमदाबाद में इनका स्वर्गवास हुआ था । इनकी विशाल शिष्य परम्परा थी जो कि २०वीं शताब्दी तक चली | Jain Education International समयसुन्दरजी को गणि पद वि.सं. १६४१ से पूर्व ही जिनचन्द्रसूरि ने १. तपागच्छके वाचक सकलचन्द्रगणि अत्यधिक प्रसिद्धिप्राप्त विद्वान् थे, संयमी थे । उनकी अनेक रचनाएं उपलब्ध है । भ्रान्तिका कारण इनकी इतनी बडी प्रसिद्धि है। अन्यथा जान बूझकर कोई ऐसी भ्रान्ति प्रसारित करे यह असंभव है । I For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520532
Book TitleAnusandhan 2005 06 SrNo 32
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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