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________________ फेब्रुआरी-2005 पउमप्पह ! अपवग्गपहसासयसुहसंपत्त । सुविहाणं तुह भवभयण भविआ करई परत्त ॥६॥ देव ! वियलिय रयणिपब्भारु तारायणु अत्थमिउ ससहरेण गयणयलु वत्तउ । निन्नासियतिमिरभरु पुव्वदिसिहि करसिन्नु पत्तउ ॥ चउविहसंघ सचित्तमणु तुह भवणंगणि एइ । जिण सुपास ! सुविहाणुं तुह वंदण भत्ति करेइ ॥७॥ केवि किंनर लेवि वरवीण आसारइ महुरगुणि केवि तालवर गीउं गा[याइं । वरनट्ट नच्चई अवर वंस सुहसुहाई वायइं ॥ भामइ आरत्तिअ अवर मंगलतूररवेण । चंदप्पह ! सुविहाण तुह जंपइ अवर खणेण ॥८॥ देव लेविणु पवर सिरखंडु मयनाहि-ससहरसहिओ(उ) सरस घुसिणरयरायरंजिओ(उ) । सम लहहिं जिणवरह तणु विविहकुसुमपब्भारपुज्जिओ(उ) । वरकालागुरु सीसमिओ(उ) मीसिवि धूवु दहति । पुष्पदंत ! सुविहाणु तुह ते भवभमणि न हुंति ॥९॥ नयविढत्तउ दविणु विच्चेवि कारावइं जिणभवणु तुंगसिहरगयणयल पत्तउ । पुण ठावइ बिंब तहिं पाडिहेर-लक्खणिहिं जुत्तउ ।। पुण तिकाल-वंदण करई गुरुवयणई निसुणंति । सीयल ! तेसु कयत्थ नर जे सुविहाणु भणंति ॥१०॥ तिहिं घरंगणि रिद्धिवित्थारु सोहगु(ग्गु) जसु कित्ति चलु ताहअण (तिहुअणि) नवि कोइ खंडइ। जे लीण तुह वयणि भवसमुद्दतारणतरंडइ । जीवदयावरवरसहिय संजुत्ता सुअनाणि । सुविहाणुं सेयंस ! तुह जंपइ निसि-अवसाणि ॥११॥ लेवि दप्पणु निनयवि अप्पाणु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520531
Book TitleAnusandhan 2005 02 SrNo 31
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages74
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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