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________________ 64 अनुसन्धान-३१ संगार सुंदर कि(क)रिवि उठ्ठि कंत पच्चूसि गच्छहं । जाएविणु भवभयहरणि जिणभवणि खिणु इक्क अच्छहं ।। दाण-सील-तव-भावहिं चउविह धम्मज्झाणु । आइनिवि भत्तिभरि जिण वसुपूज्जह सुविहाण ॥१२॥ जाव जुव्वणु जाइं न पारि जर जाव न विप्फुरइ जाम वाहि नहु बपणासइ(वपु णासइ ?)। वसि जाम परियणु सयलु जा न रूवु लायन्नु नासइ । जा न इंदिय चंचलई तोलेविणु अप्पाणु । जाइवि जिणमंदरि भणइ विमलजिणहु सुविहाणु ॥१३।। अरह सासय अरुह अरिहंत सिव संकर कुगइहर परमजोइ जोईस मुणिवर । अपुणब्भव परमपयपत्त चत्तदुहदुरिअभरहर ॥ अखय निरंजण परमसुह पयडियरूव अणंत ! । सुविहाणं तुह परमगुरु दुज्जा(ज्ज)यकम्मकयंत ! ॥१४|| धम्म संचहु धम्मु अच्चेहु मणि धम्मसंचउ करउ धम्म होइ परलोअबंधवु । जिणधम्मह बाहिरडं अवरु सव्वु इहलोअ-धंधउ ॥ ईय जाणेविणु भवियजणु मा वंचह अप्पाणु । जाइवि जिणमंदिरि भणउ धम्मजिणह सुविहाणु ॥१५॥ जेण छड्डिय रायवररिद्धि छ खंड-वसुमइ-रयण-नवनिहाण-हय-गय-सुदंसण । नियजुवइ-पुरपट्टणई गाम-नगर-बहुदेस-मंडल ॥ पिक्खिवि चंचलु मणुयभवु गहिउ संजमभारु । संतिनाह ! सुविहाण तुह तउं तिअलोअह सारु ॥१६॥ सयण-बंधव-भइणि-भिच्चयण सुकलत्त-सुहि-सज्जणिहिं कणयकोसपियपुत्तपत्तहिं । नवि केणइ होइ धर मूढजीव ! परलोइ जंतहं । परिहरि माया-मोह जिय ! परिहरियट्टज्झाणु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520531
Book TitleAnusandhan 2005 02 SrNo 31
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages74
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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