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अनुसंधान - २९
३. सानुवाद व्यवहारभाष्य कर्ता : श्रीसंघदासगणि महत्तर, अनुवाद : मुनि दुलहराज प्रका. जैन विश्व भारती, लाडनूं. ई. २००४
मूल ग्रन्थनुं सम्पादन कर्या पछी हवे तेनो (हिन्दी) अनुवाद - ग्रन्थ प्रकाशित थाय छे. विद्याजगतने उपयोगी छतां, आ अनुवाद प्रकाशित थवाथी, आवा विशिष्ट अने छेदसूत्रपरक ग्रन्थनो अबोध तथा अर्धदग्ध जनो केटलो बधो दुरुपयोग करशे ? ए प्रश्न समस्यारूप बनी रहेशे, ते नि:शंक छे. इतर आगमग्रन्थो तथा छेदसूत्रात्मक ग्रन्थो वच्चेनी विषयगत भिन्नता आचार्य महाप्रज्ञजी जेवा प्राज्ञ पुरुषना ध्यानमां होय ज; अने ए भिन्नताने लक्ष्यमां लईने आवा अनुवादोने अप्रगट ज रहेवा दई, मूळ ग्रन्थोनां सम्पादन- प्रकाशन सुधी ज पोतानी आगमवाचनाने मर्यादित राखे, तेवो हार्दिक अनुरोध करवानुं मन थाय छे. ४. जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास भाग १-२-३ ले प्रो. हीरालाल रसिकदास कापडिया सं. आ. विजयमुनिचन्द्रसूरि प्रका. आ. ओंकारसूरि ज्ञान मन्दिर, सूरत. ई. २००४. (भाषा गुजराती)
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सद्गतही. र. कापडियानुं कार्य एक रीते one man university जेवुं हतुं. तेमणे करेलां सर्जनो, संशोधनो सम्पादनो, प्रकाशनो, सूचिकार्यो एटलां मातबर, श्रेष्ठ, गंजावर अने स्वयंपूर्ण छे के एटलां कार्यो करवा माटे आजे तो १० विद्वानोनी एक टुकडीने २५ वर्ष आपो तोय ते बधां काम करी शके के केम ते सवाल छे.
आवा श्रेष्ठ विद्वाने पचासेक वर्षो पूर्वे तैयार करेल जैन संस्कृत साहित्यना इतिहासनो मूल्यवान् सन्दर्भग्रन्थ, आजे तो अलभ्यप्राय बनी रह्यो हतो. एनुं पुनः प्रकाशन थाय तो संशोधको अने अभ्यासुओने घणो उपकार थाय तेम होवा छतां ए कार्य अद्यावधि थतुं नहोतुं. आ कार्य शोधरसिक आ. मुनिचन्द्रसूरिए उपाडी लीधुं, अने सुपेरे आ ग्रन्थनुं पुनः प्रकाशन ३ पुस्तकोमां कराव्यं ते खूब आवकारदायक घटना छे. तेमणे यथावत् प्रकाशन कर्तुं होत तो पण चाली जात. पण तेने बदले तेमणे, वाचकोनी सुगमता खातर, घणी घणी बाबते नवी अने सरल व्यवस्था करी दीधी छे; नव प्रकाशित के नवप्राप्त ग्रन्थो विषे पण उपयोगी जाणकारी आमां आमेज करी छे, तथा बीजुं पण केटलंक जरूरी सम्पादनकार्य कर्तुं छे, जेनी माहिती ते ग्रन्थनी प्रस्तावनामां तेमणे आपेल छे.
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