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त्यां 'अति असारी' वधु संगत बने एम छे.
अमा (१९.५) : 'अमाप' मांथी 'अमा' थयानी शक्यता होय तो पण अहीं 'अमा' शब्द वाचनभूलथी ज ऊभो थयो जणाय छे. 'वाधीअ मामुख अशुचि अन्नई' - माताना मुखना अशुचि अन्नथी वृद्धि पामेली (काया)' एम अर्थ संगति थाय छे. 'अ' पादपूरण अर्थे छूटथी वपरायो छे. आ रचनामां 'आणीअ', 'प्राणीअ' 'पहिलीअ' एवा पुष्कळ प्रयोगो छे.
प्रणाम (३७.५) : आने लेखनदोष समजीने कौंसमां 'प्रमाण' शब्द आप्यो छे तथा शब्दार्थ पण ते प्रमाणे आप्यो छे. वस्तुतः अहीं 'प्रणाम' ज छे, जे 'परिणाम' नुं भ्रष्ट रूप छे. जैन परिभाषामा 'परिणाम' शब्द 'अध्यवसाय' ना अर्थमां रूढ छे.
अंतिम कडीना छेल्ला चारे चरणमां एक बे मात्रा खूटे छे. त्रूटकनी बीजी कडीओमां छे ते मुजब आमां पण छेडे 'ए' होय तो मात्रा मेळ पूरो
थाय.
'जैन सन्ध्याविधि 'मां जैन जेवुं कशुं नथी. पाडोशी धर्मसंप्रदायोमां बहु प्रचलित अने आकर्षक क्रियाकांडो जैन वर्तुळोमां आ रीते दाखल थता रह्या छे ए तथ्यनी पुष्टि करतुं आ एक वधु उदाहरण मळ्युं. 'गायत्रीमन्त्रवृत्ति:'- आ कृति तेना रचयिताना प्रकांड पांडित्य अने विशाळ अध्ययननी छबी आपणी समक्ष खडी करे छे. आमां गायत्रीमंत्रनुं भिन्न भिन्न दर्शनाने संमत अर्थघटन करायुं छे ते वास्तविक छे अथवा ते ते दर्शनने मान्य छे एवं धारी लेवानुं नथी. कर्ताए जाते ज अंतिम श्लोकमां 'क्रीडामात्रोपयोगमिदम्'- आ मात्र बे घडी विनोदना उपयोगनुं छे 'एम लख्युं छे, ए ग्रंथकारनी उच्च प्रामाणिकतानो पुरावो छे. संशोधक मुनिवरे लख्युं छे तेम, जैन मुनिओ बधी ज विद्याशाखाओनुं खुल्ला मने अध्ययन करता हता तथा तेमनी कलम कोइ पण विषयमा सहजपणे गतिमान थइ शकती हती ए तथ्य आ कृति द्वारा फरी एक वार सिद्ध थाय छे.
व्याकरणना नियमोनो छूटथी विनियोग, शब्दकोशनो भरपूर उपयोग, पदच्छेद अने सन्धिछेदमां कल्पनाशक्तिनो यथेच्छ विहार, दार्शनिक मान्यताओनी
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