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________________ 18 मणुयाउ य देवाउ य रायाणो उण कया वि मिच्छस्स । कइया वि हु सम्मस्सिय दुण्हं पि कुणंति अणुयत्तिं ॥६८॥ जे वि हु आउनिवइणो नामाइ नराहिवा महासुहडा । तेसु वि सम्मसण कयाणुराया धुवं थोवा ।।६९।। बहुया उ मिच्छदंसण सचिवं चिय मंतिऊण अणवरयं । कज्जेसु पयर्सेति ते वि तुह चेव आयत्ता ॥७०।। ता कस्स वि आसंका न विहेयव्वा तए तणय अहवा । सुसहायवीरियाणं निवईण भवे कुओ संका ॥७१॥ एवं च सिक्खवेउं पिउणा सो जुवनिवत्तणे ठविउं । पेसविओ य महाबलकलिओ सनिउत्तवावारे ॥७२।। अह अक्खलियप्पसरो सव्वत्थ वियंभिउं समाढत्तो । तह कह वि जह न आणं लंघइ सो को वि हु कहिं वि ॥७३॥ एवं च वियंभंतो तमसंववहारपुरजणमसेसं । तह कह वि दिट्ठिमोहेण मोहिउं कुणइ जह सहसा ।।७४|| गयचेयणो व्व मुच्छागओ व्व अवहरियजीविओ व्व सया। न मुणइ सुहं न दुक्खं न फंदए न वि य संचलइ ॥७५।। किं तु समजीयमरणो समेक्कदेहप्पवेस-निक्कासो। समनीसासूसासो समसमयाहारनीहारो ।।७६।। चिट्ठइ सया वि अविहड-सिणेह-मविय-मइव्व अच्चंतं । इयरेसिमवियरंतो नियजाईए पवेसं पि ॥७७।। तिरियगईनयरीए जइ वि पहू आउराइणा ठविउं। तिरियाऊसामंता तप्पडिबद्धं च नयरमिणं ॥७८।। तह वि नियंतस्स वि से तिरियगईनयरिसंतिओ लोओ। निज्जइ को वि कया वि हु कत्तो वि विवक्खिचरडेहिं ।।७९।। दंसणमोहेण असंववहारपुरंमि पुण तहा विहियं । जह न प्फुरइ कहंचि वि पडिवक्खिय नाममेत्तं पि ॥८०|| जे वि हु आउ-निवइणो नामाइ-निवाणमवि सुहविवागा । सम्मइंसणमणुयत्तंति इमेसिं वि तहिं न गमो (?) ॥८१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520514
Book TitleAnusandhan 1999 00 SrNo 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages144
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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