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________________ 101 // 51 // // 53 // -- ------------ -------- ति विषयवारितगतिः / बके चान्द्रः सर्वो गुणसमुदयः किञ्चिदधिको गुणाः स्थाने मान्या नरवर ! न हि स्थानरहिताः // 50 // ये काकिणीमपि महापणहिण्डमानरण्डाकरण्डशरणां न गुणा लभन्ते / ते बन्धकोविदकुविन्दकरारविन्दमैत्रीमवाप्य नृपतीनपि लोभयन्ति यत्पयोधरभारेषु मौक्तिकैर्निहितं पदम् / तत्प्रच्छादितरन्ध्राणां [गुणाना]मेव चेष्टितम् // 52 // गुणेष्वादर: कार्यो न वित्तेषु कदाचन / सुलभं गुणिनां द्रव्यं दुर्लभा धनिनां गुणाः गुणिनि गुणज्ञो रमते नाऽगुणशीलस्य गुणिनि परितोषः / अलिरेति वनात्कमलं न दुर्दुरास्त्वेकवासेऽपि वद भो भट ! किं कुर्मः कर्मणां गतिरीदृशी / दुषिधातोरिवाऽस्माकं गुणो दोषाय जायते // 55 // उत्पतति पतति तिष्ठति भूमौ परिलुठति खनति चाऽऽधारम् / कर्दमकूपे घटक: सगुणोऽपि न पूरयत्युदरम् जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः / चक्षुश्रोत्राणि जीर्यन्ति तृष्णैका तरुणायते // 57|| दुःखं दुष्कृतसंक्षयाय महतां क्षान्तेः पदं वैरिणः कायस्याऽशुचिता विरागपदवी संवेगहेतुर्जरा सर्वत्यागमहोत्सवाय मरणं जातिः सुहृत्प्रीतये संपद्भिः परिपूरितं जगदिदं स्थानं विपत्तेः कुतः // 54 // // 56 // // 58 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520514
Book TitleAnusandhan 1999 00 SrNo 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages144
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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