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________________ Jain Education International [ ७८ ] श्री सत्या-विशेष [av2 v दूसरी-तीसरी दफा बसा हुआ है अतः विज्ञानों से मेरा नम्र निवेदन है कि वे इसके उपर अधिक प्रकाश डालें जिससे जैन जनता पर उपकार होगा। लेखनी को विराम देने के पहले यदि वर्तमान वीतभयपत्तन के विषय में भी कुच्छ कहा जाय तो अनुचित न होगा । प्राचीन वीतभयपत्तन से तीन-चार कोश के फासले पर जहेलम नदी के तट पर ही बसा हुआ है । इस समय वीतभयपत्तन 'भेरे' के नाम से प्रसिद्ध है । अच्छा कस्बा है, पंजाब से पेशावर जाते हुए रास्ता में लालासा नामका जंकशन आता है, यहां से मेरे की तर्फ रेल गाडी जाती है, खास भेरा का स्टेशन भी है । इस वर्तमान भेरे को बसे हुए लगभग ८००-९०० वर्ष हुए हैं। पहले यहां जैनों की वस्ती अच्छी थी। जैनधर्म की जाहोजलाली थी। इस समय जैनों का एक भी घर शेष नहीं रहा । केवल प्राचीन एक जैन मंदिर है । जिस मुहल्ले में जैन मंदिर है उस मुहल्ला का नाम है भावडों का मुहल्ला । इस देश में ओसवालों को भावडे कहते हैं। भावटों के मुहले में जैन मंदिर के सिया खंडरात नज़र आता है। जैन मंदर भी अति जीर्णावस्था में आचुका था, गिरनेवाला हो रहा था, जैनों के ठहरने के लिए कुच्छ भी साधन न था, पंजाब के जैनों का भी विशेष लक्ष्य इधर न था । सद्भाग्य से सं० १९८० में पूज्यपाद आचार्य महाराज श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराज साहब के सुयोग्य शिष्य स्वर्गीय उपाध्यायजी महाराज श्री सोहनविजयजी यहां (मेरे) पधारे मैं भी साथ ही था इस प्रसंग पर पंजाब के बहुत से सद्गृहस्थ भी वहाँ पधारे थे। यहां जैनों के पर- जैन धर्मशालादि न होने से जेनेतर भाईयों के मकान में ठहरना हुआ । भेरे के लोग श्रद्धालु एवं भद्रिक हैं । जब उनको पता चला कि जैन साधु आए है, तब संकटों नरनारियां दर्शनार्थ आए । जैन साधुओं के आचार विचार की बातें सुन कर मस्तक धूमाते हुए आचर्य प्रगट करते धन्य है इनको । आगेवानों की प्रार्थना से खुले मैदान में उपाध्यायजी महाराजने देवगुरु धर्म के विषय में जोरदार व्याख्यान दीया और आये हुए जैन बंधुओं का श्री जैन मंदिर की ओर ध्यान आकर्षित किया- जीर्णोद्धार के लिए जोर दिया, जिसके फल स्वरूप पूज्यपाद आचार्य देव १००८ श्रीमद्विजय वल्लभसूरीश्वरजी महाराज की आज्ञा से श्री आत्मानंद जैन महासभा पंजाब ने इस शुभ कार्य को अपने हाथ में ले लिया। पंजाब श्रीसंघ की मदद से महासभाने प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया एवं प्राचीन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520001
Book TitleJain Journal 1938 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Bhawan Publication
PublisherJain Bhawan Publication
Publication Year1938
Total Pages646
LanguageEnglish
ClassificationMagazine, India_Jain Journal, & India
File Size32 MB
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