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'ज्ञानविलास' और 'संयमतरंग' के
रचयिता कौन
लेखक :-श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा - यशविलास' और 'विनयविलास' के साथ आज से करीब ६० वर्ष पूर्व 'ज्ञानविलास' और 'संयमतरंग' नाम के दो और पदसंग्रह गुजराती लीपी में प्रकाशित हुए थे। उस संग्रह में कर्ताका स्पष्ट नाम, प्रकाशक ने कहीं सूचित किया देखा नहीं गया, पर उसके बाद भीमसी माणेक ने (द्वितीय आकृति, संवत् १९५८ ) उस सारे संग्रहग्रन्थ को 'श्री वैराग्योपदेशक विविध पदसंग्रह' के नाम से नागरी लीपी में प्रकाशित किया। उसमें उन्होंने 'ज्ञानविलास पं० ज्ञानसारजी कृत छे' इन शब्दों में उसके रचयिता ज्ञानसारजी होने का लिख दिया, अतः इन पदों के कर्ता ज्ञानसारजी के नामसे प्रसिद्ध हो गए। और उसीके आधार से पं० नाथुरामजी प्रेमीने भी अपने ‘हिन्दी जन साहित्य का इतिहास' नामक निबंध, जो कि जबलपुर में सप्तम हिन्दी साहित्य सम्मेलन में पढ़ा गया था, उसमें पृ० ७८ में इस प्रकार लिख दिया--
" ८ ज्ञानसार या ज्ञानानन्द-आप एक श्वेताम्बर साधु थे। संवत् ११ (१८ ? ) ६६ तक आप जीवित रहे हैं । आप अपने आप में मस्त थे और लोगों से बहुत कम सम्बन्ध रखते थे। कहते हैं कि आप कभी कभी अहमदाबाद के एक स्मशान में पड़े रहते थे। 'सज्झाय पद अने स्तवन संग्रह ' नामके संग्रह में आपके ज्ञान विलास' और 'संयमतरंग' नामसे दो हिन्दी पदसंग्रह छपे हैं, जिनमें क्रमसे ७५ और ३७ पद है। रचना अच्छी है। आपने आनन्दधन की चौवीसी पर एक उत्तम गुजराती टोका' लिखी है जो छपचुकी है। इससे आपके गहरे स्वानुभवका पता लगता है।"
प्रेमीजी ने एक परिवर्तन तो अवश्य किया है कि ज्ञानसार के साथ पदों के अन्त में आते हुए ज्ञानानन्द, जो कि इसके वास्तविक कर्ता हैं, उनका नाम भी लिख दिया है, पर उन्हों ने इन दोनों को एक मानकर जो बातें लिख दी है वह भ्रान्त धारणा है। संवत् १८६६ और आनन्दघन चौवीसी बालावबोध यह वास्तव में श्रीमद् ज्ञानसारजी का ही है । यद्यपि १ प्रस्तुत बालावबोध गुजराती में न हो कर राजस्थानी-मारवाडी भाषा में है, पर भीमसो माणेक ने उसका परिवर्तन करके उसे साररूप (याने मूल पूरा नहीं) गुजराती भाषा में छपाया है। प्रेमोजो ने उसीके आधार से यह लिख दिया है।
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